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न्याय : परिदृश्य और परिप्रेक्ष्य - 1

प्रसन्न कुमार चौधरी

 

प्रस्तावना

मानव समाज के शैशव-काल से न्याय का प्रश्न मानव जाति की आत्म-पहचान और उसके आत्म-संगठन का केन्द्रीय प्रश्न रहा है और बदलते स्वरूप में आज तक बना हुआ है । प्रकृति को जानने और उसे बदलने के जरिये जीवनयापन करने वाले मानव-जनों को न सिर्फ अपने और प्रकृति के बीच के सम्बन्धों को, बल्कि मानव-जनों के बीच के सम्बन्धों को भी परिभाषित करना पड़ा तथा उसे संस्थाबद्ध रूप देना पड़ा । जीवनयापन के तौर-तरीकों में आनेवाले परिवर्तनों के दौरान इन परिभाषाओं और संस्थाओं में भी समय-समय पर संशोधन-परिवर्धन-परिवर्तन होते रहे । बहरहाल, इन परिभाषाओं तथा संस्थाओं के केन्द्र में न्याय-अन्याय का प्रश्न ही प्रमुख रहा है ।

आरम्भ से ही हर युग में वर्चस्वशाली-यथास्थितिवादी शक्तियां इस प्रश्न को दरकिनार कर, उसे ओझल कर किसी अन्य प्रश्न को सामने रखकर उसे ही व्यक्ति और मानव समाज का लक्ष्य बताती रही हैं । नस्लवाद, धार्मिक उन्माद, उग्र राष्ट्रवाद जैसी विभाजनकारी प्रवृत्तियों का हम समकालीन इतिहास में कई बार साक्षात् कर चुके हैं और उसके खतरनाक परिणामों को भुगत चुके हैं । आज देश-विदेश में इन प्रवृत्तियों का एक बार फिर आक्रामक उभार सहज ही रेखांकित किया जा सकता है ।

एक और प्रवृत्ति है जो न्याय को विस्थापित कर खुशी (हैप्पीनेस) को लक्ष्य के रूप में अपनाने की वकालत करती है । लैंगिक, सामाजिक, वर्गीय अन्याय के विभिन्न रूपों की शिनाख्त करने, उनके खिलाफ संघर्ष करने, राजनीतिक-सामाजिक-सांस्कृतिक सभी क्षेत्रों में न्याय को संस्थाबद्ध रूप देने और न्यायपूर्ण समाज की स्थापना की जगह व्यक्ति के स्तर पर जो भी है तथा जितना भी है, उसमें ही खुश रहने, योग, विपश्यना, आर्ट ऑफ लिविंग, आदि के जरिये मानसिक शान्ति और ‘आनन्द’ प्राप्त करने पर जोर दिया जाता है । इतिहास में ऐसे प्रयासों की भी एक परम्परा रही है । तकनीकी क्रान्ति के आज के दौर में नयी-नयी विशेषताओं के साथ, ‘खुशी’ का यह कारोबार विश्वव्यापी पैमाने पर अच्छा-खासा मुनाफा देनेवाला उद्योग बन गया है – खुशी का व्यवसाय करनेवाले ‘भगवानों’, गुरुओं को देशी-विदेशी कॉरपोरेट घरानों से लेकर शासक वर्गों, वर्ल्ड इकॉनोमिक फोरम, संयुक्त राष्ट्र संघ समेत विभिन्न वैश्विक संगठनों का भी पर्याप्त प्रोत्साहन प्राप्त है । दरअसल, न्याय के निषेध पर आधारित खुशी का यह व्यवसाय अन्याय के एक नये आयाम के रूप में उपस्थित हुआ है ।

मानवजाति आरम्भ से ही जनों, समुदायों/जातियों, वर्गों/तबकों, आदि में विभक्त रही है । एक जाति के रूप में हमारी दावेदारी का मतलब है नस्ल/जन, लिंग, समुदाय/जाति/राष्ट्रीयता/पंथ-सम्प्रदाय, वर्ग के आधार पर सामाजिक-राजनीतिक-आर्थिक-सांस्कृतिक भेदभाव तथा उत्पीड़न की अस्वीकृति और उसका खात्मा । यह भेदभाव और उत्पीड़न विभिन्न रूपों में आजतक चला आ रहा है । उत्पादन के तौर-तरीकों में परिवर्तन, वैज्ञानिक-तकनीकी क्रान्तियों, आदि के कारण हमारी जीवन-स्थितियों में आनेवाले बदलावों के फलस्वरूप मानवजाति की विभिन्न श्रेणियों की स्थितियों में परिवर्तन होता रहा है, नयी श्रेणियां भी सामने आती रही हैं, फिर भी अपने बदले हुए रूपों में भेदभाव और उत्पीड़न का यह सिलसिला अब भी जारी है । इस तरह के भेदभाव और उत्पीड़न का खात्मा ही न्याय है । विश्वव्यापी पैमाने पर इस सवाल पर सैद्धान्तिक सहमति के बावजूद, इसकी उपलब्धि अब तक एक सपना ही बना हुआ है । वैसे भी, एक (मानव) जाति के रूप में हमारी दावेदारी एक निरन्तर प्रक्रिया है । नस्ल-जन, समुदाय-जाति-राष्ट्रीयता-पंथ-सम्प्रदाय, वर्ग से सम्बन्धित अनेक पूर्वाग्रह और रूढ़ियां हमारे जीवन में वैचारिक और व्यावहारिक स्तर पर बुरी तरह जड़ जमा चुकी हैं तथा संस्थाबद्ध रूप ले चुकी हैं । यह स्थिति एक दीर्घकालीन वैचारिक-राजनीतिक संघर्ष की चुनौती पेश करती है । इसके खात्मे की दिशा में पहला काम भेदभाव तथा उत्पीड़न के शिकार समुदायों की सत्ता में भागीदारी सुनिश्चित करना, उनके लिए विशेष अवसर उपलब्ध कराना और उनके पक्ष में सकारात्मक कदम उठाना, तथा समानता और सम्मान के उनके अधिकारों को संवैधानिक-कानूनी संरक्षण प्रदान करना है । साथ ही उनके अधिकारों को मूर्त रूप देने के लिए समुचित संस्थाओं की स्थापना करना है ।

(जारी)

 

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