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न्याय : परिदृश्य और परिप्रेक्ष्य - 6

प्रसन्न कुमार चौधरी

 

जाति का खात्मा

जातियों के उद्भव और विकास के इतिहास में गये बगैर हम यहां कुछ सामान्य विवरणों तक ही खुद को सीमित रखेंगे । जाति के खात्मे पर चर्चा के दौरान निम्नलिखित तथ्यों पर गौर करना चाहिए :

(क) हजारों वर्षों के जन-समाज के दौरान ही श्रम-विभाजन अस्तित्व में आने लगा था और जनों के बीच विभिन्न रूपों में विनिमय भी । जन के अन्दर ही विभिन्न समूह उभरने लगे थे – सरदार, पुरोहित, काष्ठकर्मी, धातुकर्मी, पशुपालक, मछुआरे, बागबानी करनेवाले या प्रारम्भिक खेतिहर, आदि । चार प्रमुख श्रेणियां भी उसी दौर में सामने आ चुकी थीं – सरदार, पुरोहित, विनिमय से जुड़ा समूह, और विभिन्न उत्पादक पेशों तथा सेवा-कर्म से जुड़ा आम जनसमुदाय । जन अन्तर्विवाही समूह थे और उसकी सदस्यता जन्म से ही निर्धारित थी ।

(ख) जन-समाज से कृषि-समाज में संक्रमण की सैकड़ों वर्षों की प्रक्रिया में जातियों का उद्भव और व्यापक प्रसार हुआ । यह प्रक्रिया राजनीतिक रूप से सरदारी-प्रथा से जनपदीय राजतंत्रों तथा साम्राज्यों में परिवर्तन की प्रक्रिया भी थी । साथ ही यह सामाजिक स्तर पर नये-नये पंथों-सम्प्रदायों के उदय का काल भी था । पूरे भारतवर्ष में विभिन्न अंचलों में यह प्रक्रिया समानान्तर रूप से संपन्न नहीं हुई – इस संक्रमण की रफ्तार, उसका स्वरूप अलग-अलग अंचलों में अपनी विशिष्टताएं लिए हुई थीं । इस दौर में जनों और कृषि-आधारित जनपदों के बीच युद्धों समेत विभिन्न स्तरों पर विनिमय और आदान-प्रदान भी चलता रहा ।

(ग) वैसे तो कई जन कृषि-समाज में जातियों के रूप में शामिल हो गये, फिर भी अधिकांश मामलों में, विभिन्न जनों के समान पेशेवाले समूह एक जाति-समुदाय के रूप में सामने आये । अधिकांश कारीगर तथा पशुपालक जातियों का नाम उनके पेशों के नाम पर ही आधारित है । खेतिहर समूहों के आंचलिक नामों के कारण उन जातियों के नामों में विविधता मिलती है । विभिन्न जनों के समान पेशा-आधारित समूहों का एक जाति-समुदाय के रूप में उभरना जन का अतिक्रमण था और यह प्रक्रिया भी सैकड़ों वर्षों में संपन्न हुई ।

बहरहाल, विभिन्न जनों के समान पेशावाले समूहों का यह संगठन भी जन के स्वरूप में संपन्न हुआ – यानी, अन्तर्विवाही समुदायों के रूप में । इस प्रकार जातियां जन के स्वरूप में जन का अतिक्रमण थीं ।

(घ) चूंकि जातियों में विभिन्न जनों के समूह शामिल हुए, इसीलिए उनकी नस्ल-आधारित प्रोफाइलिंग की अनेक कोशिशें नाकाम रहीं । नस्ल-आधारित मानदण्डों (नासिका-सूचकांक, रंग, जबड़ा, आदि) पर एक ही जाति में पर्याप्त विविधता पाई गई (कुछेक अपेक्षाकृत अलग-थलग पड़े जनों तथा जातियों को छोड़कर) ।

दूसरी ओर, जातियों की व्यवस्था के स्थिर तथा स्थाई हो जाने की स्थिति में पिछले करीब दो हजार, डेढ़ हजार या एक हजार वर्षों से अन्तर्विवाही समुदाय के रूप में रहने के कारण आज के आनुवंशिकी वैज्ञानिकों तथा मानवशास्त्रियों की भी जातियों के अध्ययन में काफी दिलचस्पी बनी हुई है ।

(ङ) ‘श्रेष्ठ-निम्न’ के सोपानवाली संरचना भी भ्रूण रूप में जन-समाज में ही जन्म ले चुकी थी – ज्ञान, शासन और धन से जुड़े समूह ‘श्रेष्ठ’ तथा श्रम एवं सेवा से जुड़े समूह ‘निम्न’ माने जाने की प्रक्रिया भी तब ही शुरू हो चुकी थी । ये ‘श्रेष्ठ’ समूह अनेक विशेषाधिकारों से संपन्न होने लगे थे । आगे चलकर इन ‘श्रेष्ठ’ समूहों के बीच वर्चस्व की होड़ होने लगी और ‘निम्न’ समझे जाने वाले समूहों को काल-क्रम में उन सामान्य, मानवीय अधिकारों से भी वंचित कर दिया गया जो उन्हें पहले जन के सदस्य के रूप में प्राप्त थे ।

इसी प्रक्रिया में आगे चलकर जन्मना ‘श्रेष्ठ-निम्न’ के सोपान पर आधारित उस जाति-व्यवस्था ने आकार ग्रहण किया जिसे धर्म-सूत्रों तथा स्मृति-ग्रंथों ने व्यवस्थित रूप दिया और जो भारतीय कृषि समाज का आधार बना ।

यह प्रक्रिया काफी उथल-पुथल भरी थी क्योंकि यह विशाल भू-भाग अनेक जनों का क्रिया-स्थल था और नये-नये जनों का आना भी निरन्तर जारी रहा । इन जनों के बीच रंग, भाषा, जीवनयापन की विधियों के मामले में काफी विविधता थी । जन-समाज में संख्या-बल/शारीरिक बल काफी अहम भूमिका निभाता है । जाहिर है, जनों के बीच युद्ध में अनेक बड़े जन छोटे जनों को अपनी वास-भूमि से विस्थापित करने, उनका बड़े पैमाने पर संहार करने तथा उन्हें दास बना लेने में कामयाब हुए । अपेक्षाकृत विकसित उपकरणों तथा संसाधनों (जैसे, घोड़ों, रथों, आदि) से लैस कुछ छोटे जन भी कम समय में अपना विस्तार करने में समर्थ हुए  होंगे । कृषि के विकास के साथ-साथ आसपास रहनेवाले अनेक छोटे फलसंग्राहक-शिकारी जनों को जबरन भूदास के रूप में कृषि के साथ जोड़ा गया होगा ।

इस प्रकार, शासक, पुरोहित, कारीगर, खेतिहर, सेवक जातियों के अपेक्षाकृत संतुलित अनुपात से युक्त उस स्वयंसम्पूर्ण ग्राम-समुदाय का उदय हुआ जो भारतीय कृषि समाज का केन्द्रक, उसकी कोशिका था । कृषि के प्रसार के साथ ही इन ग्रामों का भी क्षैतिज प्रसार हुआ । ये गांव जनपदीय राजतंत्रों तथा साम्राज्यों के राजस्व की बुनियादी इकाई थे । समाज की अतिरिक्त सम्पत्ति का सबसे बुनियादी स्रोत गांव ही था ।

बहरहाल, अतिरिक्त सम्पत्ति का बुनियादी स्रोत यह इस कारण था कि इसका आधार बर्बर, उत्पीड़क जाति-प्रथा थी जहां शूद्र जातियों के रूप में सारा-का-सारा उत्पादक और सेवक समुदाय सम्पत्ति, शिक्षा और सम्मान से वंचित था । अन्त्यज जातियां अस्पृश्य थीं; वैसे विभिन्न स्तर की अस्पृश्यता से अन्य जातियां भी कमोबेश पीड़ित थीं । इन जातियों के जीने का अधिकार भी ब्राह्मण-क्षत्रिय जातियों के हाथों गिरवी था, उनका सारा जीवन इन मुट्ठी भर ‘उच्च’ जातियों द्वारा नियंत्रित था – बात-बात में मार-पीट, गाली-गलौच, किसी भी तरह के प्रतिकार की स्थिति में हत्या समेत भयानक दण्ड, आदि सामान्य बातें थीं । यहां इसके विस्तार में जाने की जरूरत नहीं – जाति-प्रथा की बर्बरता का हम अब भी प्रायः साक्षात् करते रहते हैं । इस उत्पीड़न के खिलाफ उत्पीड़ित जातियों की एकजुटता भी श्रेष्ठ-निम्न की सोपानमूलक व्यवस्था के कारण बाधित होती रही है ।

यहां यह भी याद रखना चाहिए कि कुछेक भेदभाव (खासकर कर्मकाण्डीय मसलों पर) और टकरावों के बावजूद इस जाति-प्रथा के अन्तर्गत भी कृषक तथा कारीगर जातियों के बीच बहुत हद तक समानता और सम्मान का भाव बना रहा था । कुछेक दलित जातियों के बीच भी यही बात थी । आधुनिक काल में समय-समय पर उनकी एकजुटता की यह ऐतिहासिक पृष्ठभूमि थी ।

(च) इस इतिहास के साथ-साथ हमें कुछ अन्य पहलुओं पर भी ध्यान देना चाहिए । प्रायः वर्तमान की हमारी छवि अतीत के मूल्यांकन को भी प्रभावित करती है ।

आज से दो-तीन हजार वर्ष पूर्व भारत की भौगोलिक स्थिति में बहुत ज्यादा परिवर्तन नहीं हुआ है, लेकिन आबादी में अभूतपूर्व वृद्धि हुई है । मौर्य काल में (ईसा पूर्व चौथी सदी से ईसा पूर्व दूसरी सदी के बीच) भारत की आबादी दो करोड़ के आसपास आंकी गई है । संचार और परिवहन की तब की अवस्था का भी ध्यान रखिये । यदि बुद्ध के समय से गुप्त काल तक (ईसा पूर्व छठी सदी से ईसा-उत्तर छठी सदी के बीच) के हजार वर्षों के दौरान भारत की आबादी दो से पांच करोड़ के बीच भी रखी जाए, तो कल्पना कीजिए, न सिर्फ नये-नये गांवों को बसाने का, बल्कि अनेक जनों के लिए नये नये क्षेत्रों में जा बसने का कितना अवसर मौजूद था । जनपदीय राजतंत्रों तथा साम्राज्यों के बागी समूहों के लिए भी भागकर और जंगल साफ कर नये राज्यों की नींव रखने की कितनी संभावनाएं थीं । खासकर बड़े राजतंत्रों तथा साम्राज्यों के पतन की स्थिति में अनेक नये-नये राजतंत्रों, जातियों-उपजातियों के उभरने के भरपूर प्रमाण मिलते हैं । यहां तक कि बड़े साम्राज्यों के काल में भी सुदूर इलाकों के क्षत्रप प्रायः स्वायत्त ही हुआ करते थे । इनमें से अनेक राजतंत्र मुख्यतः आदिवासी अथवा शूद्र समुदायों के राजतंत्र थे । अगर हम सिर्फ हर्षवर्धन के पतन और दिल्ली सल्तनत के बीच के काल में (करीब आठवीं सदी से बारहवीं सदी के बीच) भारत के विस्तृत भूभाग में छोटे-बड़े राजे-रजवाड़ों की सूची बनायें तो वर्तमान बिहार तथा उत्तर प्रदेश के क्षेत्र में ही कई आदिवासी और शूद्र राज्यों की सूची मिल जाएगी । यहां इसके विस्तार में जाने के बजाए इतना कहना ही काफी होगा कि अमानवीय ब्राह्मणवादी समाज-व्यवस्था के खिलाफ शूद्र जातियों के विद्रोह के फलस्वरूप जहां अवसर मिला, वहां उन्होंने अपना राज्य कायम किया । जातियों की सामाजिक स्थितियों में विभिन्न अंचलों में समय-समय पर कुछ संशोधन-परिवर्धन होता रहा और उनकी आर्थिक स्थिति तथा भूमि पर उनकी दावेदारी में भी कुछ परिवर्तन घटित हुए । लेकिन जाति-प्रथा आधारित समाज-व्यवस्था में कोई आमूल परिवर्तन नहीं हुआ । [ वैसे यह तुलना उतनी सटीक नहीं है, फिर भी हम इस परिघटना की तुलना आज की स्थिति से कर सकते हैं । जैसे मजदूर किसान या छोटे व्यवसायी वर्ग का कोई सदस्य कालक्रम में पूंजीपति बन जाता है (मीडिया में ऐसे लोगों को मिसाल के रूप में पेश किया जाता है), और इस तरह की प्रक्रिया चलती रहती है, लेकिन इससे श्रम और पूंजी के बीच का सम्बन्ध प्रभावित नहीं होता, उसी तरह शूद्रों द्वारा अपना राजतंत्र कायम कर कुछेक भूमि-क्षेत्रों पर अपना अधिकार जमाने तथा अपनी कर्मकाण्डीय स्थिति में कुछ सुधार कर लेने के बावजूद ब्राह्मणवादी समाज-व्यवस्था जारी रहती है । यह तुलना पूरी तरह सटीक इसलिए नहीं है कि जातियों के जन्मना तथा अन्तर्विवाही होने के कारण शूद्र जाति के लोगों के समक्ष गतिशीलता की संभावना काफी सीमित थी और प्रायः वह कुछ खास कालावधि तक ही जारी रह सकती थी । ] प्रसंगवश, इसी अवधि में हम चौरासी सिद्धों में कई शूद्र-सिद्ध-संतों का भी विवरण पाते हैं जिनकी हमारे साहित्य, खासकर अपभ्रंश साहित्य के विकास में अहम् भूमिका रही ।

(छ) इतिहास में वैचारिक-सांस्कृतिक, सामाजिक-आर्थिक-राजनीतिक धाराएं अधिक दिनों तक समानान्तर रूप से नहीं चलती रहती हैं – खासकर जब हम शताब्दियों और सहस्राब्धियों के पैमाने पर बात करते हैं । समानान्तर धाराएं एक-दूसरे को समय-समय पर काटती हैं, उनका अन्तर्गुंथन चलता रहता है और इस अन्तर्गुंथन के परिणामस्वरूप नयी-नयी धाराएं बनती रहती हैं । कुछ धाराएं विलुप्त हो जाती हैं या सूख जाती हैं । संस्कृत, पालि, प्राकृत, और अपभ्रंश के विपुल साहित्य में हम इन समानान्तर धाराओं, उनके अन्तर्गुंथन और नयी-नयी धाराओं के बनने-बिगड़ने की प्रक्रिया का साक्षात् कर सकते हैं ।

इसी तरह, अमानवीय व्यवस्था को कोई भी जीवंत मानव समुदाय अधिक दिनों तक बर्दाश्त नहीं करता रहता – उसका विद्रोह अनेक रूपों में, अनेक किस्म के वैचारिक-सामाजिक आन्दोलनों तथा सम्प्रदायों में प्रकट होता रहता है । कालक्रम में ये आन्दोलन अपनी भूमिका निभाकर काल-कलवित हो जाते हैं । ये विद्रोह बेकार नहीं जाते – अपने-अपने समय और समाज को अपने ढंग से प्रभावित करते हुए और कुछेक सुधारों अथवा अधिकारों को अंजाम देते हुए आनेवाली पीढ़ी के लिए वे एक प्रेरणादायी विरासत छोड़ जाते हैं ।

एक विद्रोही शूद्र राजा आगे चलकर एक क्षत्रिय राजा के रूप में ब्राह्मणों की स्वीकृति हासिल करने, राजसूय या अश्वमेध यज्ञ की लालसा में ब्राह्मणीय क्रमकाण्डों में लिप्त होकर ब्राह्मणों को भूमि दान कर निरंकुश राजा बन जाता है । एक जाति-विरोधी प्रगतिशील सामाजिक-वैचारिक आन्दोलन कालक्रम में अनेक सम्प्रदायों, शाखाओं-प्रशाखाओं में विभक्त होकर रूढ़िवादी कर्मकाण्डों में सिमट कर रह जाता । बुद्ध हों या वसव, रैदास हों, कबीर हों या घासीदास या अन्य भारत का इतिहास ऐसे उदाहरणों से भरा पड़ा है । कोई भी धारा हजार वर्ष तो क्या कुछ ही शताब्दियों में वही नहीं रही जो उनके प्रवर्तकों के समय थी । ये प्रवर्तक भी अपने समय और समाज की वस्तुस्थितियों से बंधे होते हैं – न्याय के उनके विचारों की सार्विकता अथवा कालजयिता के बावजूद, उनके द्वारा सुझाये गये समाधान अपने समय और समाज की वस्तुस्थितियों के ही सापेक्ष होते हैं, सार्विक और कालजयी नहीं ।

(ज) आज जातियों की स्थिति में काफी बदलाव आ चुका है । कुछ, खासकर दलित तथा अतिपिछड़ी जातियों को छोड़कर जो अब भी अपने परम्परागत पेशे पर निर्भर हैं, जातियों का पेशा आधार काफी हद तक खत्म होता जा रहा है या हो गया है । ‘श्रेष्ठ-निम्न’ के जातीय सोपान और इस आधार पर कर्मकाण्डों से लेकर जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में भेदभाव, उत्पीड़न, हिंसा, आदि को कोई संवैधानिक-कानूनी मान्यता प्राप्त नहीं है, बल्कि इस तरह का आचरण अनेक मामलों में संज्ञेय अपराध की श्रेणी में आता है । जातियां अब मुख्यतः जन्म-आधारित अन्तर्विवाही समुदाय हैं ।

इस बदलाव के पीछे अनेक कारण हैं और बदलाव की यह प्रक्रिया औपनिवेशिक काल में ही आरम्भ हो गई थी । पूंजीवादी उत्पादन-प्रणाली का विकास (जिसका श्रम-संगठन कृषि-समाज के श्रम-संगठन से काफी भिन्न होता है), प्राथमिक स्तर पर ही सही शिक्षा का प्रसार, शहरीकरण, सत्ता के संगठनों में आरक्षण, सार्विक मताधिकार पर आधारित राजनीतिक जनतंत्र, इन वंचित समुदायों के बीच से मध्य वर्ग का उत्थान, और सर्वोपरि, पूरे देश में विभिन्न रूपों में इन वंचित समुदायों के सामाजिक आन्दोलनों, आदि ने इस बदलाव में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई ।

बहरहाल, शिक्षा, सम्पत्ति तथा सत्ता से ऐतिहासिक रूप से वंचित और अनेक तरह के भेदभाव, अपमान तथा उत्पीड़न के शिकार इन अन्तर्विवाही समुदायों को आज भी सामाजिक रूप से अनेक किस्म के भेदभाव और उत्पीड़न का सामना कर पड़ रहा है । ऐतिहासिक रूप से इन वंचनाओं के कारण सामाजिक जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में उनकी उपस्थिति और भागीदारी आज भी या तो नगण्य है या अत्यल्प । इस भागीदारी की राह में सामाजिक तथा प्रशासनिक स्तर पर अनेक बाधाएं खड़ी की जाती हैं । कुल मिलाकर, इन अन्तर्विवाही समुदायों के बीच समानता और परस्पर सम्मान का सम्बन्ध विकसित करना आज भी एक बड़ी चुनौती बना हुआ है ।

यहां यह याद रखना चाहिए कि अन्तर्विवाही समुदाय इतिहास में लम्बे समय तक कायम रहते हैं – उनका विघटन और खात्मा आसान नहीं और वह हमारी मनोगत सदिच्छाओं पर निर्भर नहीं करता । गैर-अन्तर्विवाही समुदाय चंचल समूह होते हैं और उनमें पर्याप्त गतिशीलता होती है । यह सब हम अपने आसपास नजर दौड़ाकर ही देख सकते हैं । वर्ग अथवा पेशागत समूह, विभिन्न कार्यभारों को संपन्न करने के लिए बननेवाले समुदाय, आदि गैर-अन्तर्विवाही समुदाय हैं । नयी तकनीकों के आगमन के साथ ऐसे कई पेशागत समुदायों का विघटन और खात्मा हम अपनी आंखों के सामने देख रहे हैं । ऐसे समुदाय से जुड़े सदस्यों की गतिशीलता और उनका दूसरे समुदाय के सदस्यों में रूपान्तरण तो रोज घटता रहता है । कोई मजदूर अपने जीवनकाल में ही मध्यवर्ग का हिस्सा बन जाता है, मजदूर-किसान-मध्य वर्ग-पूंजीपति वर्ग के सदस्यों का एक-दूसरे में रूपान्तरण की क्रिया चलती रहती है । अन्तर्विवाही समुदायों और उनके सदस्यों में यह गतिशीलता नहीं होती – दलित जातियां उच्च शिक्षा ग्रहण कर लेने और समृद्ध हो जाने के बावजूद ब्राह्मण नहीं हो सकतीं । वर्ग बदल जाने के बाद भी वंचित जातियां अपनी जाति नहीं गंवातीं ।

अनेक छोटे-छोटे समुदाय भी अन्तर्विवाही होने के कारण हजारो वर्षों से अपना अस्तित्व कायम रखने में सक्षम हुए हैं (वैसे उनके अस्तित्व में बने रहने की और भी कई वजहें हैं) । हमारे देश में ही जरावा जन (और भी ऐसे ही कुछ जन) प्राचीनतम अन्तर्विवाही समुदाय हैं (लुप्त होने की कगार पर पहुंचा यह जन अब सरकारी संरक्षण में है) । जन से बाहर यौन-सम्बन्ध को लेकर उनके अत्यन्त सख़्त नियम हैं । बहरहाल, वे लम्बे काल तक अलग-थलग और जीवनयापन के आदिम तरीकों पर ही निर्भर रहे । दूसरी तरफ भारत के पारसियों को लीजिए । यह अन्तर्विवाही समूह मुख्यतः विकसित, समृद्ध नगरवासी समुदाय है । संख्या में कम होने के बावजूद सैकड़ों वर्षों से चला आ रहा यह समुदाय आज अपने सदस्यों के बीच बढ़ रहे बहिर्विवाहों के कारण अपने अस्तित्व के संकट से गुजर रहा है – यह आजकल इस समुदाय के अन्दर आत्म-मंथन और तीखे विवाद का विषय है ।

मनुष्य आम तौर पर कहीं भी सिर्फ मनुष्य की पहचान के साथ नहीं जीता । वह मानवेतर प्राणियों अथवा सृष्टि के वृहत्तर परिप्रेक्ष्य (या फिर कल्पित ‘एलिएंस’) के संदर्भ में ही मनुष्य के रूप में अपनी पहचान के साथ उपस्थित होता है । अन्यथा वह किसी-न-किसी अपेक्षाकृत स्थिर या चंचल समुदाय के सदस्य के रूप में ही पहचाना जाता है – ज्यादातर अपेक्षाकृत स्थिर, अन्तर्विवाही समुदायों के सदस्य के रूप में । जातियों के साथ-साथ ज्यादातर पंथ-सम्प्रदाय, राष्ट्रीयताएं, जन, आदि अन्तर्विवाही समुदाय ही हैं और ऐसे सारे समुदाय इतिहास में सैकड़ों वर्षों से विद्यमान हैं ।

इसीलिए, जाति का खात्मा हमारी मनोगत सदिच्छा पर निर्भर नहीं करता । यह जाति के खात्मे के अमूर्त नारे अथवा मनोगत रोडमैप तैयार करने, और कुछ सकारात्मक किन्तु सतही कदम उठाने से खत्म नहीं होगा । जाति के खात्मे के अमूर्त नारे के पीछे ऐसी शक्तियां भी खड़ी हो जा सकती हैं जिनका उद्देश्य जाति-आधारित आरक्षण तथा सकारात्मक कदमों को कमजोर करना और निरस्त करना है ।

(झ) जाति के खात्मे की दिशा में पहला काम समुदायों के बीच समानता और सम्मान का सम्बन्ध कायम करना है । समानता और पारस्परिक सम्मान का सम्बन्ध कायम करने की पूर्वशर्त है ऐतिहासिक रूप से वंचित समुदायों को विशेष अवसर प्रदान करना और उनके पक्ष में पक्षपातपूर्ण सकारात्मक कदम उठाना ताकि सामाजिक जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में उनकी प्रभावकारी उपस्थिति और सक्रिय भागीदारी सुनिश्चित की जा सके । जाहिर है, इन समुदायों के साथ हुए भेदभावों, उत्पीड़न और हिंसा तथा उन पर थोपी गई वंचनाओं के कारण यह एक दीर्घकालीन कार्य है । जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में उनकी उपस्थिति और भागीदारी जितनी बढ़ती जाएगी, समुदायों के टकरावों के बावजूद समानता और सम्मान का भी विकास होगा, अन्तर्जातीय विवाहों की संख्या भी बढ़ेगी और जातीय पूर्वाग्रहों तथा जकड़नों में भी कमी आएगी । विभिन्न जातियों की आबादी, जातियों के बीच सामाजिक-आर्थिक-सांस्कृतिक विषमताओं, आदि को देखते हुए हम समझ सकते हैं कि यह प्रक्रिया कितनी जटिल, कितनी उथल-पुथल और टकराव भरी होगी । हम वर्तमान समय में इसी प्रक्रिया से गुजर रहे हैं । इस प्रक्रिया में, जैसा कि कोई भी देख सकता है, जातीय उभारों और टकरावों के बावजूद अतीत की तुलना में इन अन्तर्विवाही जातीय समुदायों के बीच समानता और सम्मान का भाव (खासकर पिछड़े वर्गों और सवर्ण जातियों के बीच और कुछ हद तक दलित जातियों के प्रति भी) विकसित हुआ है – इससे भारतीय समाज अन्दरूनी तौर पर विभिन्न स्तरों पर समृद्ध हुआ है, न कि कमजोर । हाल के दशकों में हम भारतीय समाज की जिस अन्दरूनी गतिशीलता और सृजनशीलता का साक्षात् करते हैं, उसके पीछे एक बड़ी वजह प्राथमिक स्तर पर ही सही वंचित समुदायों का आंशिक सशक्तीकरण ही है । वर्चस्वशाली ब्राह्मणवादी शक्तियां इसलिए इस पूरे दौर की अत्यन्त नकारात्मक छवि पेश करती हैं ।

इसीलिए यह जरूरी है कि आरक्षण समेत विशेष अवसर प्रदान करने तथा वंचित समुदायों के हित में सकारात्मक पक्षपातपूर्ण कदम उठाने के कार्यक्रम को और अधिक कारगर ढंग से जारी रखा जाए और उसका विस्तार किया जाय । यहां यह याद रखना चाहिए कि आरक्षण का प्रावधान विभिन्न राज्यों में अलग-अलग समय में लागू हुआ तथा सत्तर और अस्सी के दशक में ही इसने (प्रदेश स्तर पर) सार्विक रूप ग्रहण किया । केन्द्रीय स्तर पर तो यह सरकारी नौकरियों के क्षेत्र में नब्बे के दशक में अमल में लाया गया तथा उच्च शिक्षा के क्षेत्र में इक्कीसवीं सदी के पहले दशक में (जिसे अभी तक ठीक से अमली जामा पहनाना बाकी है) । ऐतिहासिक रूप से देखें तो इन क्षेत्रों में वंचित समुदायों का आना तो अभी शुरू ही हुआ है ।

इसके साथ यह तथ्य भी जोड़ दें कि जबसे इस तरह के कदमों की शुरुआत हुई तब से ही सवर्ण समुदाय के कट्टर रूढ़िवादी समूहों द्वारा इनके खिलाफ निरन्तर विष वमन जारी है – यह जघन्य अभियान सारतः वंचित समुदायों के खिलाफ घृणा फैलाने के अपराध की श्रेणी में आता है । भारत की हर समस्या के लिए – कुशासन, भ्रष्टाचार, आर्थिक गतिरोध, सामाजिक अवनति, अपराध, कार्यकुशलता में ह्रास, आदि के लिए – आरक्षण को दोषी ठहराया जाता है मानो आरक्षण-पूर्व भारत बड़ा ही सुशासित, विकसित, कार्यकुशल, भ्रष्टाचार तथा अपराध-मुक्त देश था ! इस घृणा प्रचार के पीछे दरअसल वंचित जातियों के प्रति सदियों पुरानी जातिवादी घृणा ही काम करती है । आर्थिक न्याय और सामाजिक न्याय, गरीबी-उन्मूलन और सामाजिक सशक्तीकरण का घालमेल कर और आर्थिक आधार पर आरक्षण की वकालत कर वंचित समुदायों के संवैधानिक अधिकार को ही चुनौती देने और खत्म करने की कोशिश की जाती है । आरक्षण के जरिये सरकारी नौकरियों में और शिक्षा के क्षेत्र में अपनी थोड़ी-बहुत जगह बनाने वाले वंचित समुदाय के लोगों को अपनी रोजमर्रे की जिन्दगी में, अपने कार्यस्थलों में अनेक अपमानजनक स्थितियों और तानों का शिकार बनाया जाता है । समाज में सदियों से गहरे रूप से जड़ जमा चुकी ब्राह्मणवादी जातिवादी व्यवस्था के कारण आम तौर पर सवर्ण समुदाय के लोगों में वंचित समुदाय के प्रति घृणा का भाव संस्कार और आदत का रूप ले चुका है जिससे उनकी भाषा और आम बोलचाल-आचरण भी बुरी तरह दूषित हो चुका है । (समुदायों के बीच समानता और पारस्परिक सम्मान विकसित करने की राह में यह कितनी बड़ी बाधा है, इसका सहज ही अंदाजा लगाया जा सकता है ।)

इन कदमों का बेहद सकारात्मक पक्ष भी हम आसानी से रेखांकित कर सकते हैं । कुछ ही क्षेत्र में सही इन वंचित समुदायों की उपस्थिति और सक्रिय भागीदारी के कारण (ब्राह्मणवादी समाज-व्यवस्था के कारण आई) भारतीय समाज की जड़ता टूटी और उसमें एक परिवर्तनकारी गतिशीलता देखी जा सकती है । इन समुदायों के बीच से सामाजिक-आर्थिक, राजनीतिक-सांस्कृतिक तथा बौद्धिक क्षेत्र में सक्रिय, तेज-तर्रार, आत्म-सम्मान से लैस युवाओं की नई पीढ़ी सामने आई है – इनमें अच्छी-खासी संख्या इन समुदायों से आई युवतियों की है जो इस उपलब्धि को और भी मूल्यवान बना देती है । उच्च शिक्षा के क्षेत्र में इन समुदायों के युवाओं के कदम रखते ही उच्च शिक्षा-संस्थानों की जड़ता टूटने लगी है और उनमें भी एक सामाजिक-परिवर्तनकारी गतिशीलता दिखाई देने लगी है ।

इसलिए सवाल इन कदमों को और गहराई तथा विस्तार देने की है । इसका मतलब तो सर्वप्रथम यह है कि प्राप्त अधिकारों और प्रावधानों का कारगर क्रियान्वयन तथा इस क्रियान्वयन के लिए पारदर्शी, जवाबदेह और जिम्मेवार प्रणाली की स्थापना – यह सुशासन की आवश्यक शर्त है । कहने की जरूरत नहीं कि लम्बे समय तक प्रशासनिक मशीनरी पर सवर्ण वर्चस्व के कारण (जो अब भी काफी हद तक कायम है) सरकारी सेवाओं तथा उच्च शिक्षा के क्षेत्र में आरक्षण के प्रावधानों को लागू करने में न सिर्फ अनिच्छा रही है, बल्कि पर्याप्त मात्रा में उसमें बाधा डालने, फर्जीवाड़ा करने, बैकलॉग बनाये रखने, ‘योग्य’ उम्मीदवार न मिलने का बहाना बनाकर उसे पुनः अनारक्षित श्रेणी में डाल देने, आदि की शिकायतें काफी आम रही है । इसके अलावा, ऐसे उम्मीदवारों को परेशान तथा प्रताड़ित किये जाने के कारण वंचित समुदायों के कई प्रतिभाशाली युवाओं को आत्महत्या तक का कदम उठाना पड़ा है (जिसे दरअसल सांस्थानिक हत्या ही कहा जा सकता है) ।

डिजिटल युग में आरक्षण को केन्द्र कर एक पारदर्शी सूचना-केन्द्र भी अब तक विकसित नहीं किया गया है – एक ऐसा केन्द्र जहां कोई भी आरक्षण से सम्बन्धित सारी सूचनाएं हासिल कर सके । इन समुदायों से सम्बन्धित आयोगों के पास भी इस तरह का कोई सूचना-केन्द्र नहीं है । (जाति-जनगणना के आंकड़ें भी अब तक जारी नहीं किये गये हैं ।) सूचनाओं के अभाव में न सिर्फ वंचित समुदाय के युवाओं को वास्तविक स्थिति की जानकारी नहीं हो पाती, उन्हें दर-दर भटकना और अनेक परेशानियों का सामना करना पड़ता है, बल्कि वर्चस्वशाली समुदाय को भी अनर्गल अफवाह फैलाने तथा दुष्प्रचार का मौका मिलता है ।

प्राप्त अधिकारों के कारगर कार्यान्वयन से आगे जाकर सामाजिक आन्दोलन की कुछ मांगें लम्बे समय से लंबित हैं; जैसे, आरक्षण की सीमा बढ़ाकर 69% करना; निजी क्षेत्र में आरक्षण का प्रावधान लागू करना; वंचित समदायों, खासकर महिलाओं, दलितों और आदिवासियों पर हिंसक हमलों तथा जनसंहारों के मामलों का त्वरित निष्पादन और कठोर दण्ड की व्यवस्था; प्रमोशन में आरक्षण का प्रावधान; वंचित समुदायों के लिए गठित आयोगों को और अधिक अधिकार-सम्पन्न करना; आर्थिक क्रियाकलापों में उनकी भागीदारी सुनिश्चित करना और इसके लिए गठित निगमों की आबंटित राशि में पर्याप्त वृद्धि करना; पृथक शिक्षण तथा प्रशिक्षण संस्थाओं का गठन करना, तथा उच्च शिक्षा-संस्थानों में इन छात्रों के शोध-अनुसंधान को विशेष वित्तीय और अधिसंरचनात्मक सुविधाएं प्रदान करना; इन समुदाय के नायकों, उनके इतिहास तथा उनके सामाजिक आन्दोलनों को पाठ्य-पुस्तकों और सामाजिक जीवन में पर्याप्त स्थान देना; आदि । न्यायपालिका, मीडिया, विज्ञान-तकनीक, कला-संस्कृति, उद्यम-व्यवसाय के क्षेत्र में इन वंचित समुदायों की उपस्थिति अन्यन्त सीमित है, इसीलिए आगे के दौर में इन महत्वपूर्ण क्षेत्रों में इन समुदायों की समुचित भागीदारी सुनिश्चित करना सामाजिक आन्दोलन के समक्ष भारी चुनौती होगी । कुल मिलाकर, सामाजिक जीवन के सभी क्षेत्रों में इन समुदायों की सक्रिय, सचेत भागीदारी ही सदियों पुरानी भारतीय समाज की जड़ता को तोड़ने, उसमें एक परिवर्तनकारी गतिशीलता की लहर पैदा करने, भारतीय समाज की अन्तर्निहित सृजनात्मकता को उन्मुक्त करने, समुदायों के बीच समानता और सम्मान का सम्बन्ध विकसित करने, अन्तर्जातीय विवाहों को प्रोत्साहित करने तथा कालक्रम में जाति के खात्मे का मार्ग प्रशस्त करेगी ।

मनुवाद के नये संस्करण का कारगर जवाब सामाजिक न्याय का नया संस्करण ही हो सकता है ।

(जारी)

 

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