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न्याय : परिदृश्य और परिप्रेक्ष्य - 3

प्रसन्न कुमार चौधरी

 

न्याय का संघर्ष

इतिहास में इन सभी अन्यायों के खिलाफ संघर्ष की एक लम्बी परम्परा रही है । इन संघर्षों की अपनी-अपनी वैचारिकी, अपना-अपना जीवन-मूल्य, साहित्य और अपने-अपने नायक रहे हैं । उनकी अपनी-अपनी युग-सापेक्ष उपलब्धियां भी रही हैं । प्रचलित इतिहास में इन संघर्षों को, उनकी वैचारिकी, उनके साहित्य, उनके नायकों और उनकी उपलब्धियों को समुचित सम्मानजनक स्थान दिलाने की जद्दोजहद आज भी जारी है ।

इन सभी अन्यायों के खिलाफ संघर्ष समाज में समानान्तर रूप से हर समय चलता रहता है । आज अपने देश और दुनिया में समानान्तर रूप से चल रहे इन तमाम संघर्षों का हम सहज ही साक्षात् कर सकते हैं – सवाल यह नहीं है कि पहले यह संघर्ष हो फिर वह । विभिन्न क्षेत्रों में, अपने-अपने विशिष्ट मुद्दों पर एक ही साथ और एक ही समय में महिलाओं के, आदिवासियों के, दलित-पिछड़े और अल्पसंख्यक समुदायों के, मजदूर-किसान वर्गों के, भिन्न यौन रुझानवाले समूहों के, राष्ट्रीयताओं के और पर्यावरण-क्षरण तथा प्रदूषण से प्रभावित समुदायों के आन्दोलन चलते देखे जा सकते हैं । अनेक अवसरों पर इनमें से कुछेक आन्दोलनों को एक मंच साझा करते हुए भी देखा जा सकता है और कभी-कभी एक-दूसरे से उलझते हुए भी ।

कहने की जरूरत नहीं कि अन्याय के इन अलग-अलग आयामों के खिलाफ संघर्षरत शक्तियों की वैचारिकी, प्रचार-सामग्री, कार्यनीति, उनके संगठन के स्वरूप और उनके आन्दोलन के तरीकों, उनके नायक और उनकी विरासत, आदि में भिन्नता होगी । इन शक्तियों की किसी भी संभावित एकता के लिए इस भिन्नता की स्वीकृति तथा उसके प्रति सम्मान एक जरूरी शर्त होगी ।

न्याय के लिए संघर्षरत इन तमाम समूहों की एकजुटता में ही (खंडित समूहों की जगह) एक जाति-मूल के रूप में हम मानवजाति की वास्तविक दावेदारी का भ्रूण रूप देख सकते हैं । लेकिन क्या यह एकजुटता व्यावहारिक तौर पर मूर्त रूप ग्रहण कर पाएगी ?

इस एकजुटता के व्यावहारिक तौर पर मूर्त रूप ग्रहण करने की राह में जो रुकावटें हैं, उन पर थोड़ी चर्चा यहां बेमानी नहीं होगी ।

(क) अव्वल तो प्रत्येक आन्दोलन में अपने सम्बन्धित आयाम से जुड़ी संकीर्णता का पहलू कुछ हद तक अन्तर्निहित होता है । यह संकीर्णता अपने आन्दोलन को अन्य आन्दोलनों की तुलना में अधिक वरीयता देती है । वरीयता अथवा महत्ता की यह होड़ आन्दोलनकारी संगठनों के बीच समानता और परस्पर सम्मान पर आधारित सम्बन्धों के विकास में बाधा उपस्थित करती है । प्रत्येक आन्दोलन का प्रायः यह दावा होता है कि एक न्यायपूर्ण समाज की स्थापना में उसके आन्दोलन की निर्णायक भूमिका है और उसकी सफलता न्याय के लिए चलनेवाले अन्य आन्दोलनों की विजय की पूर्वशर्त है ।

(ख) चूंकि ये सारे आन्दोलन अपनी-अपनी विशिष्टताओं के साथ समाज में एक साथ चलते आ रहे हैं, इसलिए इन सारे आन्दोलनों के पास अपना इतिहास, अपनी विरासत, अपने नायक-खलनायक होते हैं, उनके संघर्ष का रूप अलग-अलग होता है, उनके हिस्से सफलताओं और असफलताओं का अलग-अलग खाता होता है । इतिहास में इन आन्दोलनों के आपस में टकराव के क्षण भी होते हैं; एक के नायक दूसरे के लिए महत्वहीन, या, यहां तक कि, खलनायक भी हो सकते हैं; और उनके अपने-अपने अनेक पूर्वाग्रह भी होते हैं ।

यहां कुछ प्रचलित उदाहरणों का जिक्र किया जा सकता है । अभिव्यक्ति की आजादी के लिए होनेवाले संघर्षों में ऐसे लोग और समूह भी शामिल हो सकते हैं (अथवा होते हैं) जो न्याय के लिए होनेवाले अन्य आन्दोलनों तथा उनका मांगों के विरोधी हों (जैसे आरक्षण की मांग, या फिर मजदूर-किसानों की वर्गीय मांग, आदि) । अब अभिव्यक्ति का जनवादी अधिकार व्यक्तियों तथा सभी समुदायों के लिए जरूरी है, और इसे हासिल करने के लिए देश-दुनिया में अनेक जनसंघर्ष हुए हैं और आज भी जब-जब उस पर खतरा उपस्थित होता है, तब-तब होता रहता है । लेकिन उसमें विभिन्न विचारों तथा प्रतिबद्धताओं वाले लोग शामिल होते हैं ।

उपनिवेशों में राजनीतिक स्वतंत्रता की मांग एक जनवादी मांग है, लेकिन इस स्वतंत्रता के संघर्ष में ऐसे लोग भी शामिल होते हैं जो इन देशों में पहले से चली आ रही अन्यायपूर्ण सामाजिक-आर्थिक व्यवस्था के हिमायती होते हैं । अपने देश में ही स्वतंत्रता आन्दोलन के आरम्भ से ही स्वतंत्रता आन्दोलन, सामाजिक आन्दोलन, दलित-आदिवासी समुदायों के आन्दोलन, अल्पसंख्यक समुदायों के आन्दोलन, मजदूर-किसानों के आन्दोलन के बीच टकराव होते रहे । स्वतंत्रता आन्दोलन के अनेक नायक इन आन्दोलनों की नजर में खलनायक की भूमिका में खड़े दिखाई देते हैं । इन आन्दोलनों को साझा मंच प्रदान करने की कोशिशें भी होतीं, साथ ही उनके बीच समय-समय पर तीखे संघर्ष भी होते रहते । स्वतंत्रता के बाद ये संघर्ष और खुलकर सामने आये, क्योंकि तब सामाजिक पुनर्रचना का प्रश्न केन्द्रीय प्रश्न बन गया ।

स्वतंत्रता, समानता और पारस्परिक सम्मान एक संक्रमणशील विचार है – जब राष्ट्रों के बीच स्वतंत्रता, समानता और पारस्परिक सम्मान की बात उठती है तो, जाहिर है, इस स्वतंत्रता, समानता और सम्मान से वंचित समुदाय भी अपने-अपने समुदायों के लिए यही दावा पेश करेंगे । इस प्रकार, एक राष्ट्रीय आन्दोलन अन्य अनेक आन्दोलनों की जमीन तैयार करता है । स्वतंत्रता आन्दोलन एक दुहरी प्रक्रिया को जन्म देता है – एक ओर विदेशी शासन से मुक्ति की प्रक्रिया और दूसरी ओर खुद देश के अन्दर सामाजिक पुनर्रचना की प्रक्रिया । दोनों प्रक्रियाएं एक दूसरे के साथ अन्तःक्रिया के जरिये एक दूसरे को बल प्रदान करती हैं । स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद समाज वही नहीं रहता जो उपनिवेश बनने के पहले था ।

इसी तरह सामाजिक आन्दोलनों और वर्गीय आन्दोलनों के बीच टकराव की स्थिति पैदा होती रहती है । सामाजिक आन्दोलनों के संचालकों को लगता है कि वर्ग-आधारित आन्दोलन के संचालक सामाजिक भेदभाव तथा उत्पीड़न को उचित महत्व नहीं देते, और उनके आन्दोलनों में फूट डालने और उसे कमजोर करने का प्रयास करते हैं, तो वर्ग आन्दोलनों के संचालकों को लगता है कि विभिन्न समुदायों के वर्चस्वशाली तबके समुदायगत एकता के नाम पर दरअसल अपने-अपने समुदायों के शोषित-उत्पीड़ित वर्गों के न्यायपूर्ण अधिकारों का हनन करते हैं, और जाति के आधार पर मजदूर-किसानों की वर्गीय एकता में बाधा डालते हैं । अपने देश में स्वतंत्रता आन्दोलन के दिनों से ही सामाजिक आन्दोलन और वर्ग आन्दोलन के बीच एक टिकाऊ आवयविक सम्बन्ध विकसित करने की समस्या बनी रही है ।

इसी तरह अन्य आन्दोलनों के बारे में भी कई उदाहरण दिये जा सकते हैं । बहरहाल, मूल बात है यथार्थ जीवन के इन सारे सत्यों को साझा मंच पर लाने की कोशिश करना – एक ऐसे साझा कार्यक्रम को आधार बनाना जिसमें सभी पक्षों की न्यायपूर्ण मांगों के समुचित स्थान प्राप्त हो । जाहिर है, यह कोशिश समुदायों, वर्गों के बीच आन्तरिक संघर्ष को भी जन्म देगी । यह समाज के जनवादीकरण के विस्तार और उसे गहराई में ले जाने की जरूरी सचेत प्रक्रिया है । यह न्याय के लिए संघर्षरत सभी पक्षों के बीच पारस्परिक संवाद और सहमति विकसित करने की भी प्रक्रिया है ।

(ग) न्याय की इन विभिन्न धाराओं में कोई एक धारा न्याय का एकमात्र सच्चा प्रतिनिधि होने, न्यायपूर्ण समाज की स्थापना की कुंजी होने का दावा नहीं कर सकती । कोई एक धारा अन्य सभी धाराओं का नेतृत्व करने की आत्म-मुग्ध प्रवंचना में दरअसल इन सभी धाराओं के बीच संवाद कायम करने और उनका साझा मंच बनाने की कोशिश में रुकावट ही डालेगी । इस तरह का कोई मंच पारस्परिक सम्मान, समानता और संवाद के जरिये ही साकार हो सकता है – श्रेष्ठ-निम्न का सोपानमूलक नेतृत्वकारी ढांचा इस दिशा में बाधक ही होगा । अपनी वैचारिकी, अपनी विरासत, अपने प्रतीकों और अपनी सांगठनिक विशिष्टताओं के साथ इन सभी धाराओं की स्वायत्तता के प्रति सम्मान और संवेदनशीलता ऐसी किसी भी वृहत्तर एकता की शर्त है और इस एकता का आधार सभी धाराओं की मूल मांगों को समाहित करनेवाला एक साझा कार्यक्रम ही हो सकता है ।

आधुनिक काल में कम्युनिस्ट धारा एक ऐसी धारा रही है जो अपने पास एकमात्र वैज्ञानिक रूप से निरूपित सत्य का, सामाजिक क्रान्ति के सबसे विकसित और कमोबेश परिपूर्ण सिद्धान्त होने का दावा करती रही है – यह दावा कि कम्युनिस्टों के नेतृत्व में होनेवाली क्रान्तियां और उनके नेतृत्व में स्थापित समाजवादी समाज अन्य सभी अन्यायों – वर्ग अन्याय के साथ-साथ लैंगिक, सामाजिक, राष्ट्रीय, आदि अन्यायों का अन्त कर देगी । इसलिए प्राथमिक काम, उनकी नजर में, कम्युनिस्टों के नेतृत्व में समाजवादी समाज की स्थापना है । जब ऐसे दावे किये गये थे, तब लोगों ने काफी हद तक उन पर विश्वास भी जताया था । लेकिन बात आज सिर्फ इन दावों की नहीं है – बीसवीं सदी में अनेक बड़े और छोटे देश ऐसे समाजवादी प्रयोगों के गवाह बन चुके हैं, और ये प्रयोग इन दावों की पुष्टि नहीं करते हैं ।

सत्ता और नीति-निर्माण से जुड़ी विभिन्न सामाजिक-राजनीतिक-आर्थिक संस्थाओं में प्रतिनिधित्व की मांग न्याय के लिए चलनेवाले आन्दोलनों की सबसे प्राथमिक मांग रही है । अब अन्य धाराओं की बात छोड़ भी दें और सिर्फ नारी तथा दलित आन्दोलन को ही लें, तो इन आन्दोलनों के प्रतिनिधि यह वाजिब सवाल तो कर ही सकते हैं कि सात-आठ-नौ दशकों के बाद भी कम्युनिस्ट पार्टियों, (तथा जहां उनका शासन रहा, वहां) समाजवादी देशों तथा प्रादेशिक सरकारों में इस प्रतिनिधित्व की क्या स्थिति रही ? पार्टी और सरकार की संस्थाओं में महिलाओं, दलित-आदिवासी, और अल्पसंख्यक समुदायों का प्रतिनिधित्व इतने लम्बे काल के बाद भी नगण्य क्यों रहा ? जाहिर है, यह कोई छोटी-मोटी भूल नहीं, बल्कि गहरी सामाजिक समस्या की ओर इशारा करती है, और न्याय की विभिन्न धाराओं की स्वायत्तता की जरूरत को बल प्रदान करती है । इन देशों में न्याय की विभिन्न धाराओं के काम-काज की गुंजाइश भी नहीं छोड़ी गई – सब कुछ कम्युनिस्ट पार्टी के हवाले कर दिया गया और पार्टी का विरोध समाजवाद के विरोध और प्रतिक्रियावादी ताकतों के षडयंत्र के बराबर करार दिया गया । 

इसी तरह का प्रश्न नारी, दलित, आदिवासी और अल्पसंख्यक समुदायों के प्रतिनिधि पिछड़े वर्गों के सामाजिक न्याय के प्रतिनिधि दलों तथा नेतृत्व से भी कर सकते हैं । सामाजिक न्याय की धारा भी इन समुदायों की प्रतिनिधित्व की प्राथमिक मांग तक पूरा करने में न सिर्फ विफल रही है, बल्कि प्रायः इन समुदायों के प्रति अपनी ब्राह्मणवादी मानसिकता तथा व्यवहार का परिचय देती रही है । आजादी के बाद पिछड़े वर्गों से उभरे दबंग तबके दलितों, आदिवासियों और महिलाओं पर, और अनेक अवसरों पर अल्पसंख्यक समुदायों पर जुल्म ढाते रहे हैं, हत्याएं और जनसंहार तक करते रहे हैं, तथापि इन वर्गों से सामाजिक न्याय के आन्दोलन के जरिये सामने आये राजनीतिक दल और नेता ऐसी घटनाओं की न सिर्फ अनदेखी करते हैं, बल्कि ऐसी वारदातों को अंजाम देनेवालों का बचाव करते और उनके साथ संश्रय करते देखे जा सकते हैं ।

(घ) न्याय की इन विभिन्न धाराओं के संघर्ष का स्तर भिन्न-भिन्न होता है । कहीं किसी प्रश्न पर संघर्ष काफी जुझारू स्तर पर हो सकता है, तो किसी दूसरे प्रश्न पर काफी प्राथमिक स्तर पर (बुनियादी स्तर की सामान्य गोलबंदी, मांगपत्र तैयार करने तथा सत्ता के समक्ष प्रतिनिधिमंडल भेजने के स्तर पर) । अपनी मांगों को संवैधानिक-कानूनी स्वरूप प्रदान करने के लिए न्याय की कोई धारा व्यापक आन्दोलनों की पृष्ठभूमि में आंचलिक, प्रादेशिक अथवा केन्द्रीय सत्ता में भागीदार भी हो सकती है, तो कोई दूसरी धारा अपने संघर्ष के क्रम में सत्ता के व्यापक दमन का शिकार भी । अपने देश में दलितों, पिछड़े वर्गों, आदि के आरक्षण का आन्दोलन हो, या फिर अलग प्रान्त के लिए आन्दोलन, भूमि सुधार के लिए किसानों के जुझारू आन्दोलन हों, या फिर श्रम अधिकारों के लिए मजदूरों के आन्दोलन – न्याय के लिए होनेवाले विभिन्न संघर्षों की अवस्था में भिन्नता, उतार-चढ़ाव तथा सत्ता में प्रतिनिधित्व के मामले में अन्तर हम प्रायः देखते रहे हैं । यह स्थिति भी न्याय की सभी धाराओं की एकजुटता में बाधा खड़ी करती है ।

कुल मिलाकर, न्याय की विभिन्न धाराओं का सम्मिलित राजनीतिक मंच अथवा दल आंचलिक से लेकर राष्ट्रीय स्तर पर कभी सत्तासीन नहीं हुआ है – हालांकि अलग-अलग धाराएं विभिन्न स्तरों पर सत्तासीन हुई हैं और अपनी कुछ बुनियादी और तात्कालिक मांगों को कानूनी और संवैधानिक स्वरूप प्रदान करने में सक्षम भी हुई हैं । जनतंत्र में प्रमुख राजनीतिक दलों के बीच सत्ता के लिए होनेवाली तीखी प्रतिद्वन्द्विता की स्थिति में, छोटे दलों का महत्व भी बढ़ जाता है और ऐसे दल भी प्रायः अपनी कुछ मांगे मनवाने में सफल हो जाते हैं । अस्थिर, संविद सरकारों के दौर में कई महत्वपूर्ण संवैधानिक कदम उठाए गए और विधेयक पारित हुए ।

बहरहाल, न्याय की विभिन्न धाराओं की तुलनात्मक स्थिति में यह भिन्नता शासक वर्गों को भी उनमें फूट डालने और उन्हें एक-दूसरे के विरुद्ध खड़ा करने का अवसर प्रदान करती है ।

(ङ) अन्त में, हर धारा में, हर आन्दोलन में ऐसे अवसरवादी तत्व भी होते हैं जो अपने निजी, संकीर्ण स्वार्थ में हर तरह के गैर-उसूली समझौतों के लिए तत्पर रहते हैं ।

 

उपर्युक्त स्थितियों को देखते हुए, न्याय की विभिन्न धाराओं की एकजुटता लगभग असंभव कार्य लग सकती है, फिर भी न्याय के लिए प्रतिबद्ध व्यक्तियों तथा समूहों के लिए इस एकजुटता के लिए प्रयत्नशील होना, तमाम अवरोधों तथा असफलताओं के बावजूद, एक निरन्तर क्रिया है । यह दूरदृष्टि संपन्न अत्यन्त कुशल नेतृत्व की मांग करता है । इसकी वैचारिक-सैद्धान्तिक पृष्ठभूमि के निर्माण में तथा इस एकजुटता के लिए दबाव बनाने में बौद्धिक समुदाय की एक बड़ी भूमिका है । इस एकजुटता के बिना न्याय की शक्तियों का राजनीतिक सशक्तीकरण अधूरा, इकहरा रहेगा और अन्याय की ताकतों के लिए समाज का खतरनाक विभाजन करना अपेक्षाकृत आसान होगा ।

(जारी)

 

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