top of page

न्याय : परिदृश्य और परिप्रेक्ष्य - 8

प्रसन्न कुमार चौधरी

 

वर्तमान चुनौतियां

पिछले दो वर्षों से केन्द्र में जो आरएसएस-भाजपा की सरकार सत्तारूढ़ है, उसका लक्ष्य भारत को सवर्ण जातियों के वर्चस्ववाला हिन्दू राष्ट्र बनाना है – इस दिशा में वह सत्ता में आने के साथ ही अपने अनुषंगी संगठनों के साथ पूरे जोर-शोर से लगी हुई है । वह भाजपा को 2014 के आम चुनावों में मिले पूर्ण बहुमत का पूरा फायदा उठाना चाहती है । अनेक प्रदेशों में पहले से ही उसकी सरकारें बनी हुई हैं ।   स्वतंत्रता के बाद यह भारतीय राजनीति का एक नया दौर है ।

यह पार्टी भारतीय समाज की ब्राह्मणवादी, पुरातनपंथी, अल्पसंख्यक खासकर मुस्लिम-विरोधी, विज्ञान-विरोधी, अनुदारवादी विचार-प्रथाओं और परम्परा की हिमायती है – न्याय के आन्दोलनों की परम्परा से, राष्ट्रीय आन्दोलन, सामाजिक आन्दोलन, नारी आन्दोलन, आदिवासी आन्दोलन, मजदूर-किसानों के आन्दोलन, आदि से उसका कोई रिश्ता-नाता नहीं रहा है, बल्कि वह ऐसे आन्दोलनों के विरोध में ही हमेशा खड़ी रही है । जनतांत्रिक संस्थाओं में उसकी आस्था नहीं है और अपने राजनीतिक लक्ष्यों की पूर्ति के लिए तथा अपने पक्ष में ध्रुवीकरण को (खासकर चुनावों के वक्त) मूर्त रूप देने के लिए वह अफवाहों, दुष्प्रचारों, झूठ और घृणा के प्रचार, हिंसा, जनसंहार, आदि का सहारा लेने को तत्पर रहती है । इन कार्यों को अंजाम देने के लिए उसके पास अपने प्रशिक्षित स्वयंसेवक तथा पंचमांगी दस्ते हैं । अपने करीब 91 साल के सफर में आरएसएस ने देशव्यापी पैमाने पर स्वयंसेवकों की अपनी फौज खड़ी की है, और इसकी राजनीतिक शाखा – जनसंघ और भाजपा – ने गैर-कांग्रेसवाद के दौर में विभिन्न राजनीतिक गठबंधनों का हिस्सा बनकर उसका भरपूर लाभ उठाया है तथा विभिन्न दलों, संगठनों, संस्थाओं, आदि में महत्वपूर्ण सम्पर्क विकसित कर लिए हैं । समय-समय पर कांग्रेस के साम्प्रदायिक कदमों को भी आरएसएस का भरपूर समर्थन हासिल हुआ । न्याय की शक्तियों के बिखराव और अवसरवादिता की अवस्था में कांग्रेस के पतन का सबसे बड़ा राजनीतिक फायदा उठाने में इसे ही कामयाबी मिली है । बहरहाल, यहां हमारा इरादा इसके इतिहास में जाने का नहीं है । हम यहां इसके दो सालों के कामकाज का भी लेखा-जोखा नहीं रखने जा रहे ।

आर्थिक क्षेत्र में यह कॉरपोरेट तथा विदेशी पूंजी को मुख्य चालक शक्ति मानती है और इस कॉरपोरेट-विदेशी पूंजी-आधारित विकास की राह में भारत की बहुसंख्यक अवाम – मजदूर, किसान, आदिवासी, और अन्य वंचित, अल्पसंख्यक समुदायों को प्रमुख बाधा के रूप देखती है । इस कॉरपोरेट-विदेशी पूंजी-आधारित ‘राष्ट्र-निर्माण’ के लिए वह इन समुदायों के अर्जित अधिकारों की बलि चाहती है । इस पूंजी-निवेश का मार्ग प्रशस्त करने के लिए पर्यावरण-संरक्षण तथा प्रदूषण-नियंत्रण कानूनों में ढील दी जा रही है ।

नव-उदारवादी आर्थिक सुधारों का यह दूसरा दौर है । पहला दौर जहां उपभोक्ता क्षेत्र से सम्बन्धित था, वहीं दूसरा दौर उत्पादन के कारकों (फैक्टर्स – भूमि, श्रम तथा पूंजी) के क्षेत्रों से सम्बन्धित है । यह दौर किसानों और आदिवासियों से कॉरपोरेट घरानों के हाथों में जमीन के हस्तान्तरण का, तथाकथित श्रम ‘सुधारों’ के नाम पर मजदूरों के अधिकारों में कटौती करने तथा उन्हें कॉरपोरेट घरानों की मनमर्जी पर छोड़ देने का, सरकारी क्षेत्र के उपक्रमों, बैंक, बीमा कम्पनियों, आदि को विदेशी पूंजी के लिए खोलने, पूंजी बाजार के नियमन को ढीला करने तथा विदेशी पूंजी-निवेश को सुगम बनाने का दौर है । यह सब करने के लिए वह मजदूरों-किसानों-आदिवासी समुदायों को उनके बुनियादी अधिकारों से वंचित करने की दिशा में कदम बढ़ा चुकी है । (यहां याद रखना चाहिए कि अनेक आर्थिक-सामाजिक मामलों में उसकी तथा कांग्रेस की नीतियों में कोई खास फर्क नहीं है । इनमें से कई कदम कांग्रेस की सरकारों द्वारा उठाए गए कदमों का ही और भी आक्रामक रूप में जारी रूप हैं ।)

अभिव्यक्ति की आजादी समेत आम जनवादी अधिकारों के प्रति इसका रवैया नकारात्मक है और इन अधिकारों पर लगातार हमले जारी हैं । सार्विक वयस्क मताधिकार के मामले में भी इसकी प्रतिगामी स्थिति इसके राज्य सरकारों द्वारा उठाये गये कदमों से समझी जा सकती है । एक ओर शिक्षा की अर्हता को जोड़ना और दूसरी ओर (मतदान को अनिवार्य कर) मतदान नहीं करने को दंडनीय अपराध घोषित करना – दोनों सार्विक वयस्क मताधिकार की मूल भावना का उल्लंघन है । गैर-जनतांत्रिक, गैर-संवैधानिक मार्ग अपनाने के उसके उतावलेपन की सूची इतनी लम्बी है कि उसका संक्षिप्त विवरण देना भी यहां संभव नहीं – पूर्ण बहुमत के बावजूद भूमि-अधिग्रहण के लिए बार-बार अध्यादेश का सहारा लेना, राष्ट्रपति शासन लगाने की तत्परता, विपक्षी प्रदेश सरकारों की राह में तरह-तरह से अड़चनें खड़ी करना, उसके मंत्रियों तथा नेताओं द्वारा भड़काऊ भाषण देकर अपने सहयोगी संगठनों को हिंसक कार्रवाईयों के लिए उकसाना, शिक्षण-संस्थाओँ में पुलिस कार्रवाई और उनकी स्वायत्तता का हनन, छात्रों के आन्दोलनों को ‘राष्ट्र-विरोधी’ घोषित कर उनका  दमन, विरोधियों से अपने पंचमांगी दस्तों के जरिये निपटना, आदि, आदि, की यह सूची ही उसकी गैर-जनतांत्रिक मानसिकता का परिचय देने के लिए काफी है ।

स्त्री-अधिकारों के प्रति इस दल का नजरिया ब्राह्मणवादी-पुरातनपंथी है । वह स्त्री-शरीर और स्त्री-मन के पितृसत्ताक नियमन की हिमायती है – यह नियमन इसके पंचमांगी दस्तों को स्त्रियों के खिलाफ शारीरिक हिंसा के लिए उकसाता है ।

सामाजिक आन्दोलनों के जरिये वंचित समुदायों ने जो अधिकार हासिल किये हैं (खासकर आरक्षण का अधिकार), उसे कमजोर करने तथा आर्थिक आधार पर सवर्ण समुदायों को आरक्षण के दायरे में लाने पर यह शासक दल आमादा है । न्याय के आन्दोलनों में जहां कहीं भी छोटी-मोटी दरारें हैं, उन्हें चौड़ा करने में, इन आन्दोलनों के इतिहास में या वर्तमान में जो भी नायक उपेक्षित रह गये हैं या जो भी घटना हाशिये पर रह गई है या भुला दी गई है, उसे उभारने और उसका लाभ लेने में वह कोई कोर-कसर नहीं छोड़ रहा है । अपने आक्रामक बहुसंख्यकवाद के हित में खासकर दलितों तथा अतिपिछड़ों के कुछ हिस्सों को अपने पक्ष में करने की उसने मुहिम छेड़ रखी है – मुस्लिम-विरोधी ध्रुवीकरण में वह इन समुदायों को गोलबंद कर अपने बहुसंख्यकवादी एजेंडे को आगे बढ़ाना चाहता है । कुछ ऐतिहासिक दलित-पिछड़े नायकों का वह दलित-पिछड़े नायक के रूप में नहीं, बल्कि ‘मुस्लिम-विरोधी’ नायक के रूप में उनका ‘पुनराविष्कार’ कर रहा है ।

भिन्न यौन रुझानों वाले समुदायों के प्रति वह समानता और सम्मान से पेश आना तो दूर, (ऐसे रुझानों को विकृति या बीमारी के रूप में चिह्नित कर) उन्हें दंडित करने या उनका ‘इलाज’ करने की हिमायत करता है ।

स्वच्छता अभियान में भी इसके निशाने पर पर्यावरण-संरक्षण तथा प्रदूषण-नियंत्रण कानूनों का उल्लंघन करनेवाले कॉरपोरेट घराने और नगर-प्रशासन की अक्षमता नहीं, बल्कि आम मेहनतकश समुदाय है । पर्यावरण-संरक्षण तथा प्रदूषण-नियंत्रण कानूनों को सख़्त बनाना और उनका सख़्ती से पालन सुनिश्चित करना, नगर-निकायों की वित्तीय हालत सुधारना, नगर-निकाय के कर्मचारियों (जिनमें से अधिकांश मानदेय पर काम करते हैं, और इस मामूली मानदेय का भुगतान भी कई-कई महीनों बाद किया जाता है) के वेतनमान, सेवाशर्तों तथा जीवन-स्थितियों में सुधार, सफाई के कार्य में आधुनिक मशीनों का प्रयोग, कचरा-प्रबंधन की आधुनिक प्रविधि का इस्तेमाल, आदि (जिन्हें केन्द्र या राज्य सरकारें ही कर सकती हैं, कोई व्यक्ति या संगठन नहीं) की जगह आम मेहनतकश लोगों, खासकर मेहनतकश महिलाओं को गंदगी के लिए जिम्मेवार ठहराना दरअसल उनका घोर अपमान है और मेहनतकशों के प्रति ब्राह्मणवादी नजरिये का ही प्रमाण है ।

विदेश नीति के क्षेत्र में यह शासक वर्ग अमेरिका के साथ सामरिक गठबंधन में बंधने की ओर निर्णायक कदम बढ़ा चुका है ।

बहरहाल, इसका सबसे खतरनाक कार्यक्रम अल्पसंख्यक समुदायों (खासकर मुसलमानों) को लेकर है । इस समुदाय के प्रति इसका रवैया शत्रुतापूर्ण है । यह दल मुस्लिम समुदाय के खिलाफ निरन्तर दुष्प्रचार करने, अफवाह फैलाने तथा विभिन्न उपायों से उसके खिलाफ हिंसा भड़काने की जुगत में रहता है । अपने आक्रामक बहुसंख्यकवाद के तहत वह इस समुदाय के खिलाफ (खासकर चुनाव के समय और आम तौर पर हमेशा) ध्रुवीकरण की कोशिश में लगा रहता है ।

सेक्युलर जनतांत्रिक देशों में भी बहुसख्यक समुदाय का सदस्य होना उसकी नागरिकता में अतिरिक्त मूल्य जोड़ देता है – इस मूल्य-संवर्धित नागरिकता के अपने फायदे तो हैं ही । सत्ता और सामाजिक जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में, इस समुदाय की उपस्थिति और भागीदारी वैसे ही काफी कम रही है । इस शासक दल का उद्देश्य तो उसे इस भागीदारी से वंचित कर उसे दोयम दर्जे के नागरिक की स्थिति में धकेल देना है ।

इस समुदाय के खिलाफ चलाये जा रहे दुष्प्रचार और आक्रामक बहुसंख्यकवाद का इस दल को फायदा भी हुआ है – हिन्दू मन (खासकर हिन्दू युवा मन) के साम्प्रदायीकरण में उसे कुछ हद तक कामयाबी मिली है, समय-समय पर साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण में भी वह विभिन्न क्षेत्रों में सफल हुआ है । उसके आक्रामक बहुसंख्यकवाद के सामने अन्य प्रमुख दलों ने भी कमोबेश रक्षात्मक रवैया अपना लिया है और ध्रुवीकरण की संभावना से आशंकित होकर इस समुदाय को उनके वाजिब हक देने और उनके पक्ष में सकारात्मक कदम उठाने से वे या तो परहेज करते हैं या आनाकानी करते हैं । ऐसी स्थिति में इस सरकार ने मुस्लिम समुदाय की जिस तरह घेराबंदी की है, उससे इस समुदाय के, खासकर उसके युवाओं के खुद अपने ही देश में पराया अनुभव करने के मनोभाव (एलिएनेशन) को समझा जा सकता है । भारतीय समाज के इस महत्वपूर्ण घटक का यह परायापन इस समाज को दूरगामी तौर पर न सिर्फ कमजोर करेगा, बल्कि उसे एक खतरनाक विघटन की ओर ले जाएगा । जाहिर है, यह समस्या आज नहीं पैदा हुई है, लेकिन इसने आज गंभीर रूप धारण कर लिया है । आतंक के खिलाफ युद्ध के नाम पर विश्वव्यापी पैमाने पर मुस्लिम समुदाय के खिलाफ जो माहौल बनाया जा रहा है, उस पृष्ठभूमि में यह और भी गंभीर हो गया है । अमेरिका, फ्रांस, जर्मनी, ऑस्ट्रिया, ब्रिटेन, आदि अनेक देशों में अपनी सहोदर शक्तियों के आक्रामक उत्थान से इस दल को काफी बल मिला है ।

बहरहाल, इस बहुसंख्यकवाद की काट न्याय की शक्तियों की एकजुटता में है – जहां ये शक्तियां सामान्य रूप में भी एकजुट रहीं, वहां इन विघटनकारी शक्तियों को मुंह की खानी पड़ी है । आक्रामक बहुसंख्यकवाद के जरिये जहां संभव हो, वहां जनतांत्रिक रास्ते ही लाभ उठाना, और जहां संभव न हो वहां गैर-जनतांत्रिक, गैर-संवैधानिक तरीकों का सहारा लेना – यह इस दल की नीति रही है । बहरहाल, भारतीय समाज की विविधता, समाज में न्याय की प्रचलित परम्परा, आदि इन शक्तियों का क्या भविष्य तय करती है, यह हम नहीं जानते । लेकिन इन शक्तियों के पराभव को स्वतःस्फूर्तता पर नहीं छोड़ा जा सकता ।

कुल मिलाकर, ऊपर हमने अन्याय के जिन प्रमुख रूपों का जिक्र किया है, वर्तमान शासक दल उन सभी रूपों की हिमायती है और इसने वंचित समुदायों, वर्गों, आदि के अर्जित अधिकारों को कमजोर करने और उसे खत्म करने की दिशा में कदम उठाना शुरु कर दिया है । यह स्थिति न्याय की सभी शक्तियों की एकजुटता का वस्तुगत आधार प्रदान करती है । न्याय की सम्मिलित ताकत के जरिये ही इस विभाजनकारी, कॉरपोरेट-विदेशी पूंजी-परस्त, सवर्ण ब्राह्मणवादी हिन्दुत्व की शक्तियों को शिकस्त दी जा सकती है । अधिकारों की वापसी अथवा उन्हें कमजोर किया जाना आन्दोलनों की स्थिति की बहाली है । सवाल इन आन्दोलनों का एक साझा नेतृत्व-केन्द्र विकसित करने का है ।

अप्रैल-मई, 2016

(समाप्त)

 

****

Click Archive and select the page you want to visit.

FOLLOW ME

  • Facebook Classic
  • Twitter Classic
  • c-youtube

© 2023 by SAMANTA JONES

bottom of page