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न्याय : परिदृश्य और परिप्रेक्ष्य - 4

प्रसन्न कुमार चौधरी

 

डिजिटल युग

इन सारे परिवर्तनों के बीच दुनिया सूचना-संचार क्रान्ति के एक नये युग में प्रवेश कर गई है और यह डिजिटल युग हमारी दिनचर्या से लेकर उत्पादन, व्यवसाय, शिक्षा, मनोरंजन, मीडिया, आदि सभी क्षेत्रों में तेजी से दाखिल होता जा रहा है । इस क्रान्ति से सभी वर्ग और तबके अपने-अपने ढंग से प्रभावित हो रहे हैं, जनतांत्रिक राजनीतिक ढांचा भी इस परिवर्तन से गहरे रूप में आक्रांत है, जन आन्दोलनों के संचालन और उनके तौर-तरीकों में आनेवाला बदलाव तो हाल के वर्षों में देश और दुनिया में हुए बड़े-बड़े जन-उभारों पर नजर डालने से ही साफ हो जाएगा ।

इतिहास में वैज्ञानिक-तकनीकी क्रान्तियों ने सामाजिक परिवर्तन को कितना प्रभावित किया है, इसका ब्यौरा देना यहां जरूरी नहीं । सिर्फ गुटेनबर्ग और उनके छापाखाने, तथा यूरोप के आधुनिक इतिहास में उसकी भूमिका को याद किया जा सकता है । बहरहाल, आज की तकनीकी क्रान्ति की अतुलनीय रफ्तार और उसके सामाजिक प्रभाव की बात ही कुछ और है ।

भारत में इंटरनेट पर उपस्थिति आबादी के लिहाज से अभी बहुत ज्यादा नहीं है, फिर भी संख्या के लिहाज से महत्वपूर्ण अवश्य है । स्मार्टफोन के तेजी से बढ़ते बाजार के साथ और सूचना, व्यवसाय, शिक्षा, शासन, मनोरंजन, आदि के लिए विभिन्न एप्लिकेशनों के ऊपर बढ़ती निर्भरता के कारण उनकी संख्या में तेजी से विस्तार हो रहा है । जन-आन्दोलनों के संगठन-संचालन, प्रचार-प्रसार में सोशल मीडिया बड़ी भूमिका अदा कर रहा है । बहरहाल, हर तकनीक की तरह इस तकनीकी क्रान्ति की भी दुहरी भूमिका है । यह जहां न्याय की शक्तियों के लिए उपयोगी है, तो वहीं अन्याय की शक्तियां भी इसका अपने हित में तरह-तरह से उपयोग कर रही हैं । सम्पत्ति के अप्रत्याशित संकेन्द्रण, प्रतिगामी विचारों के प्रचार-प्रसार, घृणा के प्रचार, निजता के अधिकारों के हनन, जालसाजी, दमनात्मक कार्रवाइयों, हर समस्या के सतहीकरण/सरलीकरण, चेतना को चंचल क्षणों में भटकाने, आत्म-मुग्धता/आत्म-भ्रम की वायवीय दुनिया रचने, आदि में भी इसका धड़ल्ले से प्रयोग किया जा रहा है । कुल मिलाकर, वर्चुअल दुनिया खुद अन्याय और न्याय की ताकतों के बीच तीखे संघर्षों की दुनिया बन गई है और यह संघर्ष वास्तविक दुनिया में चलनेवाले संघर्षों का न सिर्फ प्रतिबिम्ब है, बल्कि उसे बड़े रूप में प्रभावित भी कर रहा है ।

इस तकनीकी क्रान्ति के फलस्वरूप सॉफ्टवेयर क्षेत्र में काम करनेवालों की भारी तादाद सामने आई है । निजी क्षेत्र के सिर्फ बीपीओ/केपीओ सेक्टर में कर्मचारियों की संख्या करीब बारह लाख है जिसमें अच्छी-खासी संख्या महिला कर्मचारियों की है (टीसीएस में महिला कर्मचारियों की संख्या करीब चालीस फीसदी है) । इन कर्मचारियों की कार्यस्थितियां काफी दयनीय हैं, काम के घण्टे काफी ज्यादा हैं (यहां तक कि खाली समय का एक हिस्सा भी उनके काम के घण्टे में बेमोल शामिल कर लिया जाता है) । ये कार्यस्थितियां (लम्बे समय तक रात के समय कम्प्यूटरों पर काम करना, आदि) अनेक नई पेशागत मानसिक तथा शारीरिक बीमारियों का कारण बन रही हैं । इन कर्मचारियों का कोई संगठन भी नहीं है और उन्हें अपने मालिकों की मनमानियों का प्रायः शिकार होना पड़ता है । नये डिजिटल युग के इन नये कर्मचारियों का – जिनकी भारी तादाद नवजवान है – संगठन और उनके बुनियादी अधिकारों का संरक्षण आज एक आवश्यक कार्यभार बन गया है । इसके साथ, सरकारी क्षेत्र में तथा संचार-सेवाओं के क्षेत्र में ऐसे कर्मचारियों (प्रोग्रेमरों, सिस्टम एनेलिस्टों, डेटा साइंटिस्टों, आदि) की संख्या जोड़ दें तो यह तादाद और बड़ी हो जाएगी । दरअसल, शासन, व्यवसाय और जीवन के लगभग सभी क्षेत्रों में इन कर्मचारियों ने निर्णायक स्थान ग्रहण कर लिया है, लेकिन वे असंगठित हैं और सामान्य श्रम-अधिकारों से वंचित हैं । किसी ट्रेड यूनियन ने भी इस क्षेत्र में अभी पहलकदमी नहीं ली है ।

जाहिर है, भविष्य के किसी श्रमिक आन्दोलन और जन-संघर्ष में इन कर्मचारियों की काफी महत्वपूर्ण भूमिका होगी । इसका एक प्रमुख कारण व्यवसाय, शासन और जीवन के सभी क्षेत्रों की कम्प्यूटर तथा इंटरनेट पर बढ़ती निर्भरता है । इन्हीं कर्मचारियों के बीच हैकर एक्टिविस्टों (हैक्टिविस्टों) की कारगर टीम विकसित की जा सकती है जो जन-संघर्षों को प्रभावकारी धार प्रदान करेगी ।

कुल मिलाकर, न्याय के आन्दोलनों को सचेत रूप से डिजिटल युग की इन नयी वास्तविकताओं के साथ तालमेल बिठाना होगा । आन्दोलनों के पुराने रूप अब ज्यादा कारगर साबित नहीं होंगे और शासक वर्गों को उनसे निपटने में ज्यादा कठिनाई नहीं आएगी ।

आन्दोलन के संगठन तथा जहरीले विचारों और अफवाहों के प्रचार, असली मुद्दों से ध्यान भटकाने के प्रयासों का पुरजोर जवाब देने के लिए जिस तरह सोशल मीडिया में एक कारगर टीम का होना जरूरी है, उसी तरह जन-संघर्षों के दौरान हैक्टिविस्टों की छापामार कार्रवाई भी जो शासन की विभिन्न दमनात्मक इकाइयों को पंगु बनाने तथा भटकाने का काम कर सकती है । अतीत में भी ऐसी टीमें जन-आन्दोलनों का हिस्सा होती ही थीं – आज उनका डिजिटल कायान्तरण जरूरी हो गया है ।

कहने की जरूरत नहीं कि इन मामलों में शासक वर्ग पहले से ही काफी आगे है । सूचना-संचार के माध्यमों पर अपने प्रभुत्व के कारण, वे सार्वजनिक बहस के मुद्दे तय करते रहे हैं, वास्तविक मुद्दों से ध्यान भटकाने के अनेक नापाक हथकण्डे अपनाते रहे हैं, अफवाहों और डिजिटल जालसाजियों के जरिये समाज में जहरीला वातावरण बनाते रहते हैं । हालांकि हाल के दिनों में सोशल माडिया में सक्रिय न्याय की पक्षधर शक्तियां इसका कुछ हद तक प्रतिकार करने में सफल हुई हैं, फिर भी न्याय को समर्पित एक प्रतिबद्ध टीम का अब भी अभाव है ।

(जारी)

 

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