
a thousand etceteras
WRITINGS ON SOCIETY AND HISTORY
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'Naitaavad enaa, paro anyad asti' (There is not merely this, but a transcendent other).
Rgveda, X, 31.8.
न्याय : परिदृश्य और परिप्रेक्ष्य - 5
प्रसन्न कुमार चौधरी
व्यक्तियों, संगठनों तथा संस्थाओं का मूल्यांकन
व्यक्तियों, संगठनों और संस्थाओं का मूल्यांकन प्रायः न्याय की विभिन्न धाराओं के बीच तीखे विवाद का कारण बनता रहा है । इसलिए इस प्रश्न पर भी स्पष्ट दृष्टि अपेक्षित है ।
(क) प्रत्येक पीढी विरासत में अनेक विचार, संस्थाएं, संगठन और जीवन-मूल्य प्राप्त करती है और उन्हीं के बीच उनका लालन-पालन तथा प्रारंभिक विकास होता है । इन विचारों-संस्थाओं-मूल्यों में दोनों तरह की चीजें होती हैं – कुछ विचार, संस्थाएं तथा मूल्य न्याय के लिए समाज में चले आ रहे संघर्षों की उपज होते हैं और इस प्रकार न्याय के लिए होनेवाले संघर्षों की आधार-भूमि का काम करते हैं, तो वहीं बहुत सारे विचार अन्याय को औचित्य प्रदान करते हैं, बहुत सारी संस्थाएं अन्याय को संस्थाबद्ध रूप प्रदान करती हैं, और बहुत सारे मूल्य अन्याय का पक्षपोषण करते हैं । वास्तविक जीवन में ये सारी स्थितियां इतने स्पष्ट खांचों में बंटी नहीं होतीं, बल्कि अनेक रूढ़ियों और पूर्वाग्रहों के साथ आपस में घुली-मिली होती हैं ।
किसी भी देश में प्रचलित विचार-शाखाओं, संस्थाओं तथा जीवन-मूल्यों की (कुल मिलाकर, समाज में प्रचलित सामाजिक-आर्थिक-सांस्कृतिक जीवन की) समालोचना के जरिये ही आज के दौर के लिए प्रासंगिक तथा व्यावहारिक न्याय का विचार, कार्यक्रम और कार्यभार आकार ग्रहण करता है । यह एक श्रमसाध्य वैचारिक और व्यावहारिक अनुशीलन की मांग करता है । आज के जमाने के ऐसे सभी नायकों तथा प्रतीक पुरुषों को इस श्रमसाध्य बौद्धिक और व्यावहारिक प्रक्रिया से गुजरना पड़ा है ।
प्रायः ऐसा देखा जाता है कि हमारे मन-मस्तिष्क में व्यक्तियों, संस्थाओं तथा मूल्यों की एक आदर्श, अमूर्त छवि होती है और उसी छवि के आधार पर हम व्यक्तियों तथा संस्थाओं का मूल्यांकन करने लगते हैं और निराश हो जाते हैं । यथार्थ जीवन में कहीं भी ऐसे आदर्श व्यक्तियों तथा संस्थाओं का अस्तित्व नहीं होता जो न्याय की सभी कसौटियों पर खड़ा उतरे (कुछेक अपवादों को छोड़कर) । किसी भी व्यक्ति अथवा संस्था द्वारा अपने चुने गये कार्यक्षेत्र और उस क्षेत्र में उनके अवदान के आधार पर ही उनका मूल्यांकन उचित है । जाहिर है, अन्य क्षेत्र में उनका विचार और व्यवहार नकारात्मक हो सकता है, और इस लिहाज से उस क्षेत्र में काम करनेवालों द्वारा उनकी आलोचना भी न्यायोचित होगी । अक्सर हम व्यक्तियों तथा संस्थाओं के मूल्यांकन में इस द्वैत स्थिति को मानने के लिए तैयार नहीं होते और एक-आयामी, इकहरे विश्लेषण के शिकार हो जाते हैं ।
कोई व्यक्ति या संस्था न्याय के किसी एक क्षेत्र में नायक के रूप में उभरता है तो हम यह अपेक्षा करते हैं कि वह न्याय की सभी कसौटियों पर खरा उतरे । यह अपेक्षा करना गलत नहीं है, बल्कि वैसा हो, यह हमारा लक्ष्य है । लेकिन यथार्थ जीवन में ऐसे आदर्श व्यक्तियों तथा संस्थाओं का हम सामना नहीं करते । संतुलित मूल्यांकन की यह मांग है कि हम किसी व्यक्ति या संस्था के अपने चुने गये कार्य-क्षेत्र में योगदान को स्वीकार करें और उसे यथोचित सम्मान दें, तथा अन्य मामलों में उनकी आलोचनाओं को भी स्थान दें । ऐसा नहीं होने पर (चूंकि कोई भी व्यक्ति या संस्था पूर्ण या आदर्श नहीं है) हम किसी को भी उसकी कमियों, अपूर्णताओं और गलतियों का हवाला देकर उसकी लानत-मलामत कर सकते हैं, उसे मटियामेट कर सकते हैं – सार्विक निंदक की भूमिका से किया गया ऐसा मूल्यांकन हमें कहीं नहीं ले जाएगा । बेवजह आरोप-प्रत्यारोप के अन्तहीन सिलसिले में फंस कर हम खुद अकेले रह जाएंगे, निष्क्रिय निंदक की भूमिका में । आखिर उस भूमिका में भी हम टिक नहीं पाएंगे क्योंकि हम खुद भी आदर्श और पूर्ण नहीं है ।
न्याय तथा सामाजिक बेहतरी के लिए चलनेवाले लगभग सभी आन्दोलनों, उनके नायकों और उन्हें संचालित करनेवाले संगठनों को खासकर नारी तथा दलित-आदिवासी समुदायों की गंभीर आलोचनाओं का सामना करना पड़ता है, और ये आलोचनाएं वाजिब भी हैं, क्योंकि नारियों और दलित-आदिवासी समुदायों को समानता और सम्मान के आधार पर ऐसे आन्दोलनों में भी प्रायः वाजिब स्थान तथा प्रतिनिधित्व प्राप्त नहीं हुआ है । इन आन्दोलनों में अपनी पर्याप्त सक्रिय भागीदारी के बावजूद, इन आन्दोलनों के नेतृत्व तथा नीति-निर्माण की संस्थाओं में पुरुष और पुरुष ही दिखाई देंगे, और वह भी ज्यादातर सवर्ण समुदायों से आये हुए पुरुष – प्रायः अपने नारी-विरोधी, दलित-आदिवासी-विरोधी पूर्वाग्रहों तथा रूढिवादी धारणाओं के साथ । किसी भी आधार पर इस स्थिति को औचित्य प्रदान नहीं किया जा सकता ।
(ख) कुल मिलाकर, इतिहास में अब तक मनुष्य के रूप में पहचान के ऊपर जन, जाति, वर्ग-तबका, धन, आदि के रूप में पहचान हावी रहा है और इन पहचानों के बीच ‘श्रेष्ठ-निम्न’ की श्रेणियां रही हैं । मनुष्य खुद कोई ‘आदर्श’ प्राणी नहीं रहा है; उसके जनों, जातियों, पंथों, वर्गों, राष्ट्रों, आदि के बीच रक्तपात, युद्ध, जनसंहार, झूठ-फरेब, जालसाजी, विश्वासघात, अनेक जघन्य विकृत आचरणों का अनवरत् सिलसिला आज तक चलता आ रहा है – आज दुनिया के मानचित्र पर नजर डालने भर से इस वीभत्स सिलसिले का अंदाजा लगाया जा सकता है ।
बहरहाल, इसी रक्तपात और विकृतियों के बीच उसने आश्चर्यजनक आविष्कार भी किये हैं; उद्यमिता के हैरतअंगेज कारनामों को भी अंजाम दिया है; विचार और व्यवहार में मानवता, न्याय, प्रेम, सत्य, अहिंसा, त्याग, आदि के अप्रतिम उदाहरण भी पेश किये हैं; और कला-संस्कृति के क्षेत्र में एक-से-एक प्रतिमान कायम किये हैं । मनुष्य का यह द्वैत चरित्र खुद उसके मिथकों, उसकी अनेक कलाकृतियों और रचनाओं में भी प्रभावी रूप से अभिव्यक्त हुआ है । आज भी हम व्यक्ति और समाज के रूप में विरासत में प्राप्त इस द्वैत को, (एक ही साथ और एक ही समय में) अपनी विकृत क्षुद्रताओं तथा उत्कृष्ट उदात्त भावों को जी रहे हैं ।
इस पृष्ठभूमि में हम पाते हैं कि किसी एक क्षेत्र में अनुकरणीय उदाहरण प्रस्तुत करनेवाला व्यक्ति किसी दूसरे क्षेत्र में अत्यन्त निंदनीय/अमानवीय भूमिका में खड़ा होता है । विज्ञान के क्षेत्र में अपने आविष्कार से मानवजाति को समृद्ध करनेवाला कोई वैज्ञानिक नस्लवादी भी हो सकता है । कला की दुनिया में अपनी कृतियों से चकित करनेवाला कलाकार स्त्रियों को प्रताड़ित करनेवाला मर्दवादी भी हो सकता है । भाषा-साहित्य में अपने अतुलनीय योगदान के लिए जाना जानेवाला व्यक्ति जातीय भेदभाव और उत्पीड़न पर आधारित ब्राह्मणवादी समाज-व्यवस्था का समर्थक हो सकता है । अपनी उद्यमिता से शानदार कारनामों को अंजाम देनेवाला व्यक्ति दास-प्रथा अथवा श्रमिकों के शोषण का हिमायती भी हो सकता है । आदि, आदि । अपने भीतर तथा अपने आसपास नजर दौड़ाकर ही हम इस सत्य का सहज साक्षात्कार कर सकते हैं ।
ऐसी स्थिति में, एक (असंभव) आदर्श नायक की तलाश में लगे रहने, अथवा एक (निष्क्रिय) सार्विक निंदक की भूमिका अपनाने के बजाय हमें जीवन के किसी भी क्षेत्र में सकारात्मक योगदान करनेवाले को समुचित सम्मान देने तथा अन्य क्षेत्रों में, प्रसंगानुसार, उसके नकारात्मक विचारों और आचरणों की आलोचना करने की संतुलित दृष्टि अपनानी चाहिए । यह दृष्टि मानवजाति की समस्त सकारात्मक विरासत से हमें जोड़ती है, न्याय के पक्ष में प्रत्येक संभावित समूहों को एकजुट करने में सहायता प्रदान करती है, और सर्वोपरि, ज्ञान और व्यवहार के क्षेत्र में खुद को ‘आदर्श’ समझने अथवा ‘न्यायाधीश’ की भूमिका अपनाने के भ्रमजाल से मुक्त कर विनम्र बनाती है । यह विनम्रता न्याय की स्वाभाविक सहचर है, जिसके बिना न्याय का कोई साझा मंच या संघर्ष व्यावहारिक रूप से सफल नहीं हो सकता ।
इसलिए, मिथकों, इतिहास, नायकों, आदि के प्रश्नों से आगे जाकर हमें न्याय के साझा कार्यक्रमों और कार्यभारों के आधार पर साझा मंच और साझा संघर्ष विकसित करने पर ध्यान केन्द्रित करना चाहिए और उन्हीं आधारों पर एकजुट होना चाहिए । अन्य प्रश्नों पर हमें एक दूसरे को समझने, विभिन्न परिप्रेक्ष्यों और दृष्टियों को यथोचित स्थान देने तथा असहमति के बिन्दुओं पर स्वस्थ संवाद चलाते रहने का प्रयास करना चाहिए । यह पद्धति हमें निरर्थक विवादों और गुटबंदियों में अपनी ऊर्जा बर्बाद करने के बजाए, न्याय के प्रश्न पर बनी व्यापक सहमति को धरातल पर उतारने के वैचारिक तथा व्यावहारिक प्रयासों पर ध्यान केन्द्रित करने की ओर प्रोत्साहित करती है ।
‘सत्य’ का ‘एकमात्र’ अधिकारी होने के अहंकारपूर्ण दावों ने न्याय के आन्दोलनों को समय-समय पर काफी क्षति पहुंचाई है । इस क्षुद्र अहंकार के विपरीत विनम्रता के महत्व को समझने के लिए किसी किताबी ज्ञान की जरूरत नहीं – सिर्फ अपने शरीर और मन पर ही नजर दौड़ाना काफी है । हम अपने रोजमर्रे के जीवन में चलते-फिरते-काम करते विरासत में प्राप्त न मालूम कितने ज्ञान ढोते होते हैं – जो कपड़ा हम पहने होते हैं, उसके पीछे हजारों वर्षों पुरानी ज्ञान परम्परा है; हम नहीं जानते कब किसने कपास उगाया, किसने उसे ओटा, किसने सूत काता, कपड़ा बुना । यही बात हमारे जूतों, कलमों, चश्मों, घड़ियों, मोबाइल, आदि पर भी लागू होती है । हम हमेशा न मालूम कितना ज्ञान-कोष अपने साथ लिए चलते हैं । हमें उनके आविष्कारकों-कारीगरों का पता नहीं होता, न हमें उन आविष्कारकों-कारीगरों की वैचारिक-राजनीतिक-सामाजिक प्रतिबद्धताओं का पता होता है । यह लिखते वक्त भी हमें याद रखना चाहिए कि लिपियों के विकास में हजारों वर्षों के काल-क्रम में अनेक समाजों और व्यक्तियों का योगदान रहा है । किसी ने वर्णमाला की पोथियां लिखीं, किसी ने व्याकरण की – इन रचनाओं के अभाव में न धर्मग्रंथ लिखे जाते, न महाकाव्य, न ‘वेल्थ ऑफ नेशन्स’, न ‘विंडिकेशन ऑफ द राइट्स ऑफ वूमेन’, न ‘केपिटल’, न ‘चीफ सिएटल का मेमोरेंडम’, और न ‘एनिहिलेशन ऑफ कास्ट’ । आज भी इस तरह के कार्यों के महत्व को कम करके नहीं आंकना चाहिए । हमारी मानसिक दुनिया भी विरासत में प्राप्त अनेक विचारों, साहित्यिक कृतियों, आदि से आच्छादित रहती है और हमारे अपने निष्कर्षों-निर्णयों को न मालूम कितने रूपों में प्रभावित करती रहती है ।
ज्ञान की इस दुनिया में विचरते हुए हमें यह अहसास होना चाहिए कि इस दुनिया में हमारा अपना योगदान लगभग शून्य है (और अगर हम विरासत में प्राप्त ज्ञान को भी संभाल पाने में असमर्थ हैं, तो हमारा योगदान नकारात्मक ही माना जाएगा) । फिर कैसा अहंकार ? विनम्रता और इस विनम्रता पर आधारित स्वस्थ, सार्थक संवाद अनेक समुदायों, वर्गों, तबकों, आदि में विभक्त मानवजाति को न्याय के आधार पर एकजुट करने की प्रारंभिक शर्त है । न्याय यदि एक जाति के रूप में हमारी दावेदारी का आधार है तो विनम्रता इस दावेदारी के क्रियान्वयन की पूर्वशर्त ।
(ग) अनेक जन-विद्रोहों, जन-आन्दोलनों तथा जन-क्रान्तियों के जरिये न्याय से वंचित समुदायों, वर्गों तथा राष्ट्रों ने कई अधिकार हासिल किये हैं, इन अधिकारों को संवैधानिक-कानूनी मान्यता प्राप्त हुई है और उनके संरक्षण, क्रियान्वयन तथा विस्तार के लिए कई संस्थाएं भी अस्तित्व में आई हैं । प्रत्येक अधिकार विद्रोह का संवैधानिक अवतार है और इसलिए इन अधिकारों को निरस्त करने अथवा उसमें कटौती करने का मतलब है विद्रोह की स्थिति में वापसी । इस प्रकार प्रत्येक अधिकार में ही विद्रोह का अधिकार भी अन्तर्निहित है ।
अनेक विद्रोहों तथा आन्दोलनों के जरिये ही आदिवासी समुदायों वाले क्षेत्रों में पृथक काश्तकारी कानून बने, और आगे चलकर उन क्षेत्रों को विभिन्न स्तर की स्वायत्तता प्रदान करने के लिए हमारे संविधान में पांचवीं, छठी तथा सातवीं अनुसूची का प्रावधान किया गया । जनजातीय भाषाओं को मान्यता मिली, शिक्षा और रोजगार के क्षेत्र में विशेष अवसर प्रदान करने के लिए आरक्षण की व्यवस्था की गई और पृथक वित्तीय निगमों, प्रशिक्षण संस्थानों, सलाहकार बोर्डों तथा परिषदों की स्थापना की गई ।
देश-दुनिया में अनेक जुझारू संघर्षों और क्रान्तियों के बाद मजदूर वर्ग को संगठन, आठ घण्टे काम के दिन तथा हड़ताल का अधिकार हासिल हुआ । सम्प्रभुता का अधिकार राष्ट्रीय आन्दोलन का परिणाम है, तो अभिव्यक्ति की आजादी, सार्विक वयस्क मताधिकार, आदि व्यापक जनवादी आन्दोलनों का । स्त्रियों को मताधिकार, बाल-विवाह पर रोक, सम्पत्ति में हिस्सेदारी, यौन-हिंसा तथा उत्पीड़न के खिलाफ कानून, घरेलू हिंसा के खिलाफ कानून, आदि नारी आन्दोलन की देन है ।
इसी तरह सामाजिक न्याय के लिए चलाए गए व्यापक जन-आन्दोलनों के जरिये ही इस आन्दोलन की कुछ प्राथमिक मांगों ने संवैधानिक रूप ग्रहण किया – दलित तथा पिछड़े वर्गों के लिए सरकारी रोजगार और शिक्षा के क्षेत्र में आरक्षण का प्रावधान किया गया, इन वर्गों के अधिकारों के संरक्षण तथा अनुपालन के लिए आयोगों का गठन किया गया, और कुछ अन्य सकारात्मक कदम उठाए गये । पर्यावरण संरक्षण और प्रदूषण से मुक्ति के लिए चलनेवाले आन्दोलनों के फलस्वरूप पर्यावरण संरक्षण तथा प्रदूषण नियंत्रण से सम्बन्धित कानून तथा ग्रीन ट्रिब्युनल बने । ऊर्जा के वैकल्पिक स्रोतों के विकास को गति मिली ।
यहां हम जन-आन्दोलनों और इन आन्दोलनों के संवैधानिक-कानूनी अधिकारों में रूपान्तरण का कोई विवरण नहीं दे रहे हैं । सिर्फ यह दिखाने का प्रयास कर रहे हैं कि कैसे प्रत्येक अधिकार विद्रोहों तथा जन-आन्दोलनों का ही संवैधानिक-कानूनी अवतार है और इन अधिकारों की वापसी का मतलब है विद्रोह तथा आन्दोलनों की स्थिति की बहाली ।
उपर्युक्त अधिकारों पर एक नजर डालने से ही यह स्पष्ट हो जाएगा कि ये अधिकार न्याय के आन्दोलन के नजरिये से बस प्राथमिक अधिकार ही हैं और यह कि इन प्राथमिक अधिकारों के क्रियान्वयन की स्थिति तो और भी दयनीय है । उनका (अधिकांश मामलों में) पालन कम और उल्लंघन ही ज्यादा होता रहा है । इन अधिकारों के संरक्षण, अनुपालन और विस्तार के लिए जो संस्थाएं बनाई गईं, उनकी स्थिति प्रायः खस्ताहाल ही रही है ।
यह स्थिति दो जरूरी चीजों की ओर इशारा करती है – एक तो अधिकारों को मान्यता मिलने के बाद भी जन-आन्दोलनों का दबाव बनाये रखना जरूरी है; दूसरा, इन अधिकारों के प्रभावी क्रियान्वयन के लिए सत्ता के संगठनों में (विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका में) इन आन्दोलनों से जुड़ी शक्तियों की प्रभावकारी उपस्थिति जरूरी है (हमारे संविधान में अगर इस प्रकार के कुछ बुनियादी अधिकारों को मान्यता मिली तो इसकी एक बड़ी वजह यह थी कि इन अधिकारों के पक्ष में खड़ा होनेवाला और न्याय के आन्दोलन से जुड़ा एक प्रभावकारी समूह संविधान सभा का सदस्य था, और खुद बाबासाहेब अम्बेडकर की संविधान तैयार करने में अहम् भूमिका थी) । इसके अलावा, जनमत का दबाव बनाये रखने के लिए बौद्धिक मंडलियों, मीडिया, आदि में भी असरदार ढंग से हस्तक्षेप आवश्यक है । (इस तरह के आन्दोलनों से जुड़े जो लोग सत्ता में भागीदार रहे, उनकी भूमिका भी इस लिहाज से अत्यन्त असंतोषजनक ही रही । इस का एक प्रमुख कारण यह है कि एक बार सत्ता हासिल कर लेने के बाद उनकी प्राथमिकता सत्ता में किसी तरह बने रहना हो जाता है और इसके लिए वे अनेक अवसरवादी समझौतों में लिप्त हो जाते हैं । जिन आन्दोलनों और कार्यक्रमों की बदौलत वे सत्ता में पहुंचे, उन्हें आगे बढ़ाना उनकी कार्यसूची में पीछे चला जाता है) ।
बहरहाल, तुलनाएं हम अतीत से करते हैं, लेकिन योजना हम अपने लक्ष्य को सामने रखकर बनाते हैं । अतीत से तुलना करने पर हमें न्याय के लिए होनेवाले आन्दोलनों की उपलब्धियों का आभास होता है, जबकि लक्ष्य को सामने रखकर योजना बनाते समय हम पाते हैं कि ये उपलब्धियां तो बस शुरुआत भर हैं, कि अभी कितना कुछ करना बाकी है ।
उपलब्धियां हैं । इन समुदायों, वर्गों, आदि की आज जवान हो रही पीढ़ी को यह जानकर कुछ हैरत तो होती ही है कि आज से सौ साल पहले उनके पूर्वजों को ऐसे कुछ प्राथमिक अधिकार भी प्राप्त नहीं थे, कि बोलने, सम्मान के साथ जीने के अधिकार के लिए उन्हें कितना संघर्ष करना पड़ा, कितनी यातनाएं सहनी पड़ीं और कितनी कुर्बानियां देनी पड़ीं, कि उनके समुदाय में शायद ही कोई साक्षर था, और कि सत्ता के संगठनों में उनके समुदायों का कोई प्रतिनिधित्व नहीं था ।
लक्ष्य को सामने रखकर देखें तो पाएंगे कि इतने लम्बे संघर्ष और कुर्बानियों के बावजूद, सामाजिक जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में, खासकर उच्च शिक्षा, मीडिया, न्यायपालिका, आदि में उनकी उपस्थिति कुछ खास नहीं है । विज्ञान और तकनीक के क्षेत्र में तो उनकी भागीदारी नगण्य ही है, उद्यम-व्यवसाय, कला-संस्कृति के क्षेत्र में भी यही हाल है । सार्विक वयस्क मताधिकार पर आधारित राजनीतिक जनतंत्र तथा सरकारी नौकरियों में आरक्षण के कारण राजनीतिक सत्ता में उन्होंने अपनी महत्वपूर्ण भागीदारी तो हासिल की है, लेकिन शिक्षा और सम्पत्ति से ऐतिहासिक रूप से वंचित रहने के कारण सामाजिक जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में समानता और सम्मान का स्थान ग्रहण करने में अब भी काफी लम्बा सफर तय करना बाकी है । सामाजिक जीवन में (खासकर दलितों, आदिवासियों और स्त्रियों के साथ) भेदभाव, उत्पीड़न और हिंसा की घटनाएं आज भी बदस्तूर जारी हैं ।
इसके साथ, अगर हम न्याय के आन्दोलनों के सामाजिक-सांस्कृतिक प्रतीकों को समाज में प्रतिष्ठित करने, इतिहास के पुनर्लेखन, पाठ्यपुस्तकों में न्याय के आन्दोलनों, उनके नायकों को स्थान दिलाने, समाज में विभिन्न रूपों में जड़ जमा चुकी अन्यायपूर्ण प्रथाओं, रूढ़ियों, कर्मकाण्डों, विचारों के खिलाफ वैचारिक-सांस्कृतिक अभियान चलाने की महती चुनौती को जोड़ दें तो आज न्याय के आन्दोलन के समक्ष जो गंभीर कार्यभार उपस्थित हुआ है, उसका सहज ही अंदाजा लगाया जा सकता है ।
इस संदर्भ में यह ध्यान देना जरूरी है कि समुदाय-आधारित आन्दोलनों में कभी पूरे-के-पूरे समुदाय की एक रूढ़ छवि बनाने, पूरे समुदाय को शत्रु के रूप में चिह्नित करने, उसके खिलाफ घृणा फैलाने, हर समस्या के लिए उसे दोषी ठहराने, जैसी प्रवृत्तियों का हमेशा पुरजोर विरोध करना चाहिए । हर समुदाय में कमोबेश हर तरह के लोग होते हैं । किसी खास मामले में, खास मौकों पर अगर कुछ विध्वंसक शक्तियां अपने समुदाय की गोलबंदी में सफल भी हो जाती हैं, तब भी आम लोगों और ऐसी विध्वंसक शक्तियों के बीच फर्क को कभी भूलना नहीं चाहिए । यह प्रवृत्ति अन्ततः समुदाय-आधारित हिंसा-प्रतिहिंसा और जनसंहार के बर्बर कृत्य की ओर ले जाती है । जनसंहार के प्रतिकार में जनसंहार की प्रवृत्ति न्याय के वृहत्तर आन्दोलन को भारी क्षति पहुंचाती है ।
(घ) जनतांत्रिक राजनीतिक प्रणाली ऐतिहासिक रूप से एक नई प्रणाली है । मानवजाति ने जिन राजनीतिक प्रणालियों के अन्तर्गत अपना लम्बा वक्त बिताया है, वे जनतंत्र के आगमन के साथ एकबारगी खत्म नहीं हो गईं । वे हमारे राजनीतिक जीवन में गहरे रूप से समाई हुई हैं – हमारे अधिकांश दल तथा संगठन सरदारी-प्रथा, वंशानुगत नेतृत्वकारी तंत्र, सम्प्रदायों/मठों/डेरों वाली सर्वसत्तावादी संरचनाओं द्वारा ही संचालित हैं । हां, राजनीतिक सत्ता हासिल करने के लिए उन्हें सार्विक वयस्क मताधिकार पर आधारित जनतांत्रिक चुनाव प्रक्रिया से गुजरना पड़ता है । जनता के बीच विरासत में प्राप्त अनेक सम्प्रदायों, विचार-परम्पराओं, मठों, आदि का प्रभाव बड़े पैमाने पर मौजूद है, और उनकी गोलबंदी के दौरान इन प्रभावों का भी भरपूर प्रयोग किया जाता है । इसके अलावा, उत्पादन तथा सूचना के साधनों पर मुट्ठी भर धनकुबेरों की इजारेदारी, धन-बल तथा सत्ता-बल का आक्रामक सम्मिलित उपयोग न्याय के पक्ष में जनसमुदाय की व्यापक गोलबंदी को काफी चुनौतीपूर्ण बना देता है । इन बाधाओं के बावजूद, अनेक महत्वपूर्ण मोड़ों पर न्याय की शक्तियों की सामान्य, तात्कालिक एकजुटता के सामने अन्याय की शक्तियों को शिकस्त खानी पड़ी है ।
उपर्युक्त यथार्थ स्थितियां हमें किसी आदर्श, अमूर्त स्थिति से चीजों, घटनाओं, आदि को समझने, उनका मूल्यांकन करने से बचाती हैं, और सामाजिक रूप से उपयोगी, व्यावहारिक कार्यक्रमों तथा कार्यभारों के निर्धारण में मदद पहुंचाती हैं ।
(ङ) समाज में राजनीतिक क्रान्तियों का काल अपेक्षाकृत संक्षिप्त ही होता है । विचार और व्यवहार के स्तर पर हर समय गैर-क्रान्तिकाल में अनेकों उपयोगी, परिवर्तनमूलक काम होते रहते हैं । लम्बे समय तक चलनेवाले ऐसे कार्य ही घनीभूत होकर क्रान्ति-काल में विस्फोट का रूप धारण करते हैं और समाज एक नये युग में प्रवेश कर जाता है । इसीलिए ‘क्रान्तिकारी कार्य’ करने के अहं में समाज में निरन्तर किये जा रहे परिवर्तनमूलक, उपयोगी तथा न्याय को विस्तार देनेवाले कार्यों को न तो तुच्छ दृष्टि से देखना चाहिए, न ही उन्हें अनदेखा करना अथवा उसके महत्व को कम करके आंकना चाहिये । दरअसल, ‘क्रान्तिकारी कार्य’ करने का दावा करने वाले प्रायः अपने आसपास होनेवाले अनेको उपयोगी कार्यों को देख नहीं पाते, और जो किया जा सकता है, उसकी भी उपेक्षा कर खोखली लफ्फाजी के शिकार हो जाते हैं ।
(च) लम्बे काल तक चलनेवाला बड़ा जन आन्दोलन जिसमें अनेक समुदायों के लोग शामिल होते हैं, ऐसे नेतृत्व की मांग करता है जो समुदायों की संकीर्ण दुनिया से ऊपर उठा हो और जो निष्पक्षता के साथ प्रत्येक समुदाय के वाजिब हितों की रक्षा कर सके तथा उनके बीच मध्यस्थ की भूमिका अदा कर सके । यथार्थ जगत में ऐसा अमूर्त नेतृत्व मौजूद नहीं होता । हर नेता किसी-न-किसी समुदाय/वर्ग/तबके से अथवा किसी-न-किसी विशिष्ट क्षेत्र या हित से सम्बद्ध होता है । ऐसे समुदाय-विशेष के नेता के प्रति दूसरे समुदायों के नेताओं या खुद उसके अपने समुदाय के विभिन्न लोगों के अपने पूर्वाग्रह या फिर मतभेद हो सकते हैं जिसके कारण उसकी सर्वस्वीकार्यता बाधित हो सकती है । इसीलिए ऐसा आन्दोलन अपने विकास-क्रम में अपने किसी मूर्त, समुदाय-विशेष के नेतृत्व में अमूर्तता का आरोपन कर उसे भगवान, महात्मा, स्वामी, संत या करिश्माई रूप में प्रस्तुत कर इस जरूरत को पूरा करता है । फिर उस नेतृत्व के इर्दगिर्द अनेक मिथक गढ़े जाने लगते हैं और सम्बन्धित नेतृत्व भी अमूर्तता के मानकों पर खड़ा उतरने की कोशिश करता है । यह प्रक्रिया आन्दोलन के पूरे क्रम में चलती रहती है – नेताओं के समूह में कौन इस अमूर्तता से महिमामण्डित होता है, यह बहुत हद तक सम्बन्धित व्यक्ति के निजी रुझानों, उसके इतिहास तथा यथार्थ आन्दोलनों में मध्यस्थ के रूप में उसकी योग्यता पर निर्भर करता है ।
ऐसे नेतृत्व का जीवन मूर्त जरूरतों और अमूर्त अपेक्षाओं के विरोधाभास के बीच गुजरता है – उसके आलोचक अथवा विरोधी उसके मूर्त क्रियाकलापों का हवाला देकर उसके ‘अमूर्त मध्यस्थ’ होने के दावों का भण्डाफोड़ करते हैं, उसे ढ़ोंगी या पाखण्डी करार देते हैं, जबकि उसके अनुयायी उसकी ‘अमूर्तता’ को आन्दोलन की धरोहर और उसकी कामयाबी की गारंटी मानते हैं । उसकी अमूर्त छवि में लोग ‘मानवता का कमोबेश आदर्श रूप’ ढूंढ लेते हैं ।
(छ) इसी तरह, लम्बे समय तक चलनेवाले राजनीतिक आन्दोलनों में कार्यकर्ताओं के बीच श्रम-विभाजन भी जड़ जमा लेता है । यह श्रम-विभाजन आन्दोलन के आरम्भिक दिनों में जहां आन्दोलनकारी संगठन की कार्यकुशलता तथा नवाचारिता में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है, वहीं बाद के दौर में (खासकर जब वह आन्दोलन अपना राजनीतिक लक्ष्य हासिल करने में नाकामयाब हो) इस श्रम-विभाजन का नकारात्मक परिणाम प्रभावी हो जाता है । एक ही तरह के काम को साल-दर-साल दिनचर्या के रूप में करते रहना सम्मोहक जड़ता तथा मानसिक शिथिलता का सबब बन जाता है । इस जड़ता के बन्दीगृह में आत्म-मूल्यांकन में असमर्थ, आत्म-मुग्ध सार्विक निन्दक की स्थिति उसकी नवाचारिता की क्षमता को सदा के लिए कुंद कर देती है ।
(जारी)
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