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न्याय : परिदृश्य और परिप्रेक्ष्य - 7

प्रसन्न कुमार चौधरी

 जाति का खात्मा (जारी)

कहा जाता है कि जाति-आधारित आरक्षण के कारण जातिवाद काफी बढ़ गया है और यह सामाजिक ताने-बाने को अराजकता की हद तक ले जाकर क्षत-विक्षत कर रहा है जिससे भारत की सामाजिक-आर्थिक प्रगति बाधित हो रही है । घटनाओं के चुनिन्दा संकलन तथा उसको बार-बार दुहराने के जरिये दरअसल वर्चस्वशाली मीडिया आरक्षण को केन्द्र कर ऐसी ही छवि बनाने में लगा है, ताकि आरक्षण बनाम ‘योग्यता’ का बहस चलाकर तथाकथित ‘योग्यता’ के पक्ष में आरक्षण को येन-केन-प्रकारेण कमजोर करने का माहौल बनाया जा सके । ‘जातिवाद काफी बढ़ गया है’ कहनेवाले प्रायः ऐसे उग्र जातिवादी तत्व ही हैं जिन्हें जातिवाद के बढ़ने से उतनी चिन्ता नहीं, जितना सामाजिक जीवन में वंचित समुदायों की बढ़ती भागीदारी और दावेदारी से ।

मानवजाति चूंकि समुदायों में बंटी है, इसीलिए राजनीतिक संघर्षों, खासकर चुनावों के दौरान समुदाय-आधारित गोलबंदी (दुनिया भर में) कोई नई बात नहीं है । वैसे प्रायः सभी जातियों के लोग कमोबेश अनेक दलों और विचारधाराओं में बंटे होते हैं, इसीलिए किसी एक दल के पक्ष में किसी समुदाय या समुदायों के गठबंधन की शत-प्रतिशत गोलबंदी (कुछेक अपवादों या असाधारण स्थितियों को छोड़कर) शायद ही संभव हो पाती है । जो लोग ‘जातिवाद के उभार’ से परेशान दिखते हैं, उन्हें ‘उच्च’ जातियों के अस्सी फीसदी का किसी एक गठबंधन को वोट देना गलत नहीं लगता, लेकिन वंचित समुदायों की 40, 50 या 60 प्रतिशत गोलबंदी भी ‘जातिवादी उभार’ के रूप में नागवार लगती है ।

समुदायों की इस राजनीतिक गोलबंदी और तीखे संघर्षों के बीच हम इस बात पर ध्यान केन्द्रित करते हैं कि कौन सा दल या दलों का गठबंधन वंचित समुदायों की मांगों और हितों को आगे बढ़ाता है, कौन वंचित समुदायों की राजनीतिक गोलबंदी का प्रयोग कर सत्ता हासिल करने के बाद (उनके अधिकारों का भले विरोधी न हो पर) खुद सत्ता में बने रहने के लिए अवसरवादी समझौतों में लिप्त होकर वंचितों के हित में कदम उठाने से परहेज करता है, और कौन सामयिक रूप से उनकी राजनीतिक गोलबंदी का उपयोग कर सत्ता हासिल करने के बाद उन्हें अपने अर्जित अधिकारों से भी वंचित कर उग्र राष्ट्रवादी या धार्मिक उन्मादी क्रियाकलापों की ओर मोड़ देना चाहता है । कुल मिलाकर, समुदायों की बहुलता वाले हमारे देश में यह राजनीतिक संघर्ष लम्बे समय तक चलता रहेगा ।

कोई चीज जब स्थायित्व ग्रहण कर लेती है तो हर कोई उसका लाभ उठाना चाहता है । आरक्षण के साथ भी यही बात है । दलितों-आदिवासियों-पिछड़े वर्गों के लिए आरक्षण की संवैधानिक व्यवस्था जैसे-जैसे हमारे सामाजिक जीवन का स्थायी अंग बनती गई, वैसे-वैसे आरक्षण से वंचित दबंग समुदाय भी इस प्रक्रिया का अंग बनने की कोशिश करने लगे । (यह अलग बात है कि ऐसी कुछ वंचित जातियां भी हो सकती हैं जो आरक्षित जातियों की सूची से बाहर रह गई हों, और जो इसको लेकर आन्दोलनरत हों । यहां हम इन समुदायों की बात नहीं कर रहे हैं ।) आरक्षण के क्रियान्वयन में बाधा उपस्थित करना, फर्जीवाड़ा करना, अपनी राजनीतिक-प्रशासनिक स्थिति का फायदा उठाकर उसे स्थगित करना, आदि, आदि – इन सब के अलावा, कुछेक दबंग समुदायों द्वारा खुद को पिछड़ा वर्ग या अनुसूचित जनजाति घोषित कर अपने लिए पृथक आरक्षण के लिए उग्र हिंसक आन्दोलन का सहारा लेना, और इन आन्दोलनों को पहले हवा देकर और फिर उनकी पृष्ठभूमि में आरक्षण के संवैधानिक प्रावधान को ही बदल देने या कमजोर करने की कोशिश करना, अन्ततः आर्थिक आधार पर सवर्ण जातियों के लिए चौदह या दस प्रतिशत आरक्षण सुनिश्चित करवा लेना – वंचित समुदायों के सामाजिक न्याय के आन्दोलन के खिलाफ न्याय-विरोधी शक्तियों और दलों के इन प्रयासों ने हाल के वर्षों में काफी आक्रामक रूप ग्रहण कर लिया है । (एक बार इस तरह की व्यवस्था कर देने के बाद, किसी भी दल के लिए उन्हें वापस लेना कितना मुश्किल होगा, इसे इस तरह की शक्तियां भली-भांति जानती हैं ।)

दूसरी तरफ, यह भी सही है कि आरक्षण की व्यवस्था लागू होने के बाद से विभिन्न प्रदेशों में आरक्षण का लाभ उठानेवाली कुछ बड़ी जातियों तथा अतिपिछड़ी और दलित जातियों के बीच खाई चौड़ी हुई है (इसका एक कारण तो यह है कि ऐतिहासिक रूप से विभिन्न जातियों की तुलनात्मक सामाजिक स्थिति में फर्क रहा है) । वैसे इन बड़ी जातियों और अन्य जातियों के बीच राजनीतिक गोलबंदियों के आरम्भिक दौर से ही खट्ठा-मीठा सम्बन्ध रहा है । इस पृष्ठभूमि में, अतिपिछड़े तथा कुछ दलित तबके आरक्षण के प्रावधान में भी अपने लिए अलग हिस्सा सुरक्षित कर लेना चाहते हैं । (यहां यह उल्लेख करना जरूरी है कि सामाजिक जीवन के विभिन्न हिस्सों में इन बड़ी जातियों की उपस्थिति और भागीदारी अब भी काफी कम है, इसलिए उनके लिए आरक्षण की जरूरत लम्बे समय तक बनी रहेगी ।) फिर भी आरक्षण तथा सकारात्मक कदम उठाने के क्रम में उपर्युक्त तथ्यों को ध्यान में रखना अपेक्षित है । यह भी ध्यान रखना चाहिए कि कोई कानून बनने (वह भी शिक्षा तथा रोजगार के क्षेत्र में) और सामाजिक रूप से उसके धरातल पर उतरने में तथा उसकी सामाजिक उपलब्धि दिखने में काफी वक्त लगता है । इस लिहाज से हम, खासकर उत्तर भारत में प्राथमिक अवस्था में ही हैं ।

(ञ) जातियों के खात्मे का एक रास्ता धर्मान्तरण का भी है । हिन्दू धर्म का परित्याग कर एक ऐसे धर्म को अपनाना जिसमें जाति-प्रथा न हो । इस संदर्भ में निम्नलिखत तथ्यों पर गौर करना चाहिए :

1. समुदायों का किसी धर्म या पंथ/सम्प्रदाय से रिश्ता ऐतिहासिक रूप से विकसित होता है और कालक्रम में वह उनके रोजमर्रे के जीवन का आवयविक अंग बन जाता है । उसके साथ सम्बन्ध विच्छेद आसान नहीं होता । एक बार जीवन का आवयविक अंग बन जाने के बाद वह उन्हें अन्य अनेक सम्बन्धों, क्रियाकलापों तथा कर्मकाण्डों-मिथकों के साथ जोड़ देता है ।

2. जहां इस बात के उदाहरण मिलते हैं कि उत्पीड़ित समुदाय अनेक अवसरों पर अपने उत्पीड़कों के खिलाफ बगावत के रूप में उत्पीड़कों के धर्म/पंथ/सम्प्रदाय से भिन्न धर्म/पंथ/सम्प्रदाय अपना लेते हैं या फिर किसी नये धर्म-पंथ-सम्प्रदाय की नींव रखते हैं, वहीं इतिहास में इस बात के भी पर्याप्त प्रमाण हैं कि विद्रोहों और टकरावों के बावजूद उत्पीड़क और उत्पीड़ित एक ही धर्म-पंथ-सम्प्रदाय में बने रहते हैं । भारत में ही कुछ हद तक विभिन्न अंचलों में दोनों तरह के उदाहरण कमोबेश देखे जा सकते हैं । एक ही पंथ-सम्प्रदाय के अन्दर शासक-शासित, उत्पीड़क-उत्पीड़ित प्रायः एक-दूसरे के साथ मिली-जुली अवस्था में लम्बे काल तक बंधे रहते हैं । अमेरिका में दास और दास मालिक, अफ्रीका में रंगभेद/नस्लवाद के शिकार और उस पर अमल करनेवाले एक ही पंथ-सम्प्रदाय से जुड़े रहे, भले ही अफ्रीकी तथा अफ्रीकी-अमेरिकी समुदायों ने अपने लिए कुछ खास चर्च कायम कर लिए । (यहां यह भी ध्यान देने योग्य है कि ईसाई मत के साथ अफ्रीकी जनों के जुड़ाव के पीछे बड़ी भूमिका औपनिवेशिक काल के जबरन धर्मान्तरण की भी थी ।) दासों के विद्रोह, गृहयुद्ध, नागरिक अधिकार आन्दोलन, तथा छिटपुट धर्मान्तरण की घटनाओं के बावजूद अफ्रीकी-अमेरिकी अब भी कमोबेश ईसाई मत के साथ ही जुड़े हैं । दक्षिण अमेरिकी देशों में देशज आबादी के साथ भी यही बात है । वहां ईसाई मत के भीतर ही ‘लिबरेशन थियोलॉजी’ का विकास हुआ जिससे कई प्रमुख पादरी भी जुड़े थे ।

3. हिन्दू धर्म मूलतः एक विकेन्द्रित धर्म रहा है जिसमें देवी-देवताओं, रीति-रिवाजों, कर्मकाण्डों, आदि की पर्याप्त विविधता रही है (हालांकि इसे भी एक केन्द्रीकृत धर्म में बदलने की पुरजोर कोशिश की जा रही है) । समय-समय पर इसके अन्दर भी कई सुधार आन्दोलन चलते रहे हैं जिसमे जाति-प्रथा का विरोध प्रमुख विषय रहा है और इन आन्दोलनों के परिणामस्वरूप विभिन्न अंचलों में अनेक सम्प्रदाय भी बनते रहे हैं । अनेक प्रमुख देवी-देवताओं के साथ, उनके मिथकों के साथ शूद्र कृषक जातियों का घनिष्ठ सम्बन्ध रहा है और यह सब इन जातियों के रोजमर्रे के जीवन, कर्मकाण्ड, किस्सों-मुहावरों का अंग बन गया है । दरअसल, हिन्दू धर्म के कायम रहने में सबसे अहम् भूमिका इसकी इसी विकेन्द्रीयता की, तथा इन्हीं शूद्र कृषक-कारीगर-सेवक जातियों की रही है । अगर हम विभिन्न जातियों के रोजमर्रे के कर्मकाण्डीय जीवन, उनकी बोलचाल, रहन-सहन, आदि को गौर से देखें तो हमें इसका सहज ही अंदाजा लग जाएगा ।

साथ ही, हिन्दू मतावलम्बियों की कुल आबादी को ही नहीं, बल्कि प्रमुख शूद्र जातियों की आबादी को ध्यान में रखिये । इन जातियों की आबादी यूरोप और दुनिया के अनेक देशों की आबादी के बराबर है ।

4. भारतीय कृषि समाज में जाति-प्रथा ने इतनी गहरी जड़ें जमा ली हैं कि धर्मान्तरण के बावजूद दलित जातियों को अपने नये धर्म में भी जातीय भेदभाव का सामना करना पड़ता है । यही कारण है कि इस्लाम और ईसाई धर्म अपनाने वाले दलित समुदायों को भी इन भेदभावों के खिलाफ आन्दोलन करना पड़ रहा है और अपने लिए आरक्षण की मांग करनी पड़ रही है । पिछड़े वर्गों की सूची में भी कई जातियां दूसरे धर्मों के पिछड़े समुदायों की हैं ।

पिछले कुछ दशकों में दलित आन्दोलन को कुछ महत्वपूर्ण राजनीतिक-सामाजिक उपलब्धियां हासिल होने के बावजूद बौद्ध धर्म में दलितों का धर्मान्तरण कोई आन्दोलन की शक्ल नहीं ले सका है और सांस्थानिक बौद्ध धर्म में नव-बौद्धों की हालत भी बेहतर नहीं कही जा सकती । धर्म परिवर्तन के बाद यह समुदाय सांस्थानिक बौद्ध धर्म का हिस्सा बन जाता है । बौद्ध धर्म का ऐतिहासिक रूप से इस्लाम के साथ जो सम्बन्ध रहा है और हाल के दिनों में कुछ घटनाओं (खासकर बर्मा के रोहिंगिया मुसलमानों पर ढाये गये जुल्म) को ध्यान में रखें तो सवर्ण हिन्दुत्व की शक्तियों द्वारा सांस्थानिक बौद्ध धर्म को अपने पक्ष में कर लेने की प्रबल संभावना बनती है ।

कुल मिलाकर, धर्मान्तरण की इन कोशिशों के बावजूद, तथ्य यह है कि दलित-पिछड़ी जातियों की विशाल बहुसंख्या हिन्दू धर्म का हिस्सा बनी रहेंगी । इसलिए इन मामलों में अपनी मनोगत सदिच्छाओं के आधार पर कार्यक्रम बनाने के बजाए, हमें वस्तुगत यथार्थ को ध्यान में रखकर समुदायों के बीच समानता और पारस्परिक सम्मान विकसित करने के उस कार्यक्रम को ही गहराई और विस्तार देना चाहिए जिसका हम पहले जिक्र कर चुके हैं ।

(जारी)

 

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