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न्याय : परिदृश्य और परिप्रेक्ष्य - 2

प्रसन्न कुमार चौधरी

 

अन्याय के प्रमुख रूप

यहां हम अन्याय के प्रमुख रूपों को सूत्रबद्ध करने का प्रयास कर सकते हैं :

1. लिंग-आधारित अन्याय – नर-नारी सम्बन्धों में अन्तर्निहित भेदभाव और उत्पीड़न मानव इतिहास में अन्याय के प्राचीनतम रूपों में से एक है । उत्पादन तथा जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में अपने महत्वपूर्ण योगदान के बावजूद (कुछेक अपवादों को छोड़कर) नारियों को समानता तथा सम्मान का स्थान प्राप्त नहीं हुआ और उन्हें पुरुष-वर्चस्ववाले समाज में अनेक किस्म की बंदिशों, प्रताड़नाओं, उत्पीड़न तथा हिंसा का शिकार बनाया जाता रहा है । नारियों के प्रति, अपनी ही आधी आबादी के प्रति पुरुष-पूर्वाग्रहों पर आधारित रूढ़ छवियां मानव इतिहास की प्राचीनतम रूढ़ियों में से एक है जिससे हम आजतक गहरे रूप से ग्रस्त रहे हैं । हमारे ‘इतिहास’ में (कुछ अपवादों को छोड़ दें तो) नारियां लगभग अनुपस्थित ही रही हैं – सरदारों, राजाओं, दार्शनिकों, शासनाधिकारियों, सेनापतियों, वैज्ञानिकों-अनुसंधानकर्ताओं-तकनीशियनों, अर्थशास्त्रियों, लेखकों-कलाकारों, आदि की हजारों पृष्ठों में फैली नामावली में नारियां यदा-कदा ही ताकती-झांकती नजर आती हैं । कुछेक सुधारों के बावजूद, डिजिटल युग में भी लैंगिक भेदभाव और उत्पीड़न बदस्तूर जारी है ।

अपनी ही जननियों के साथ यह मानवजाति के सबसे बड़े अन्यायों में से एक है, और एक जाति के रूप में हमारी दावेदारी के समक्ष सबसे बड़ा प्रश्नचिह्न है । जाहिर है, प्रकट-अप्रकट अनेक रूपों में इस अन्याय के प्रतिकार की भी हर युग में अपनी एक परम्परा रही है ।

2. समुदाय-आधारित अन्याय - जनों का विकास समानान्तर रूप से नहीं हुआ है – असमान विकास की स्वाभाविक प्रक्रिया में कुछ जन बड़े थे, कुछ छोटे; कुछ के पास परिष्कृत औजार थे, कुछ के पास अनगढ़; जीवनयापन के लिहाज से कुछ जन अधिक संपन्न थे, कुछ विपन्न । उनके रीति-रिवाजों, कर्मकाण्डों, मान्यताओं और रूढ़ियों में भी भिन्नताएं थीं । जीवनयापन के उनके साधन तथा स्रोत भी भिन्न-भिन्न थे और उनके बीच समय-समय पर अनेक सम्बन्ध बनते-बिगड़ते रहते थे । मानवजाति के आरम्भ काल में शारीरिक बल/संख्या बल का निर्णायक स्थान था । जन का आत्म-प्रसार, जन की पहचान ही सर्वोपरि थी, अन्य जनों का अस्तित्व भी किसी एक जन के लिए वैसा था जैसे अन्य प्राणी-समूहों का अस्तित्व । इसी विकास-क्रम में जनों के बीच एक-दूसरे के प्रति अनेक रूढ़ छवियों का भी निर्माण हुआ । एक जाति के रूप में मनुष्य की पहचान पर जन के रूप में अपने-अपने जनों की पहचान हावी थी ।

इसी प्रक्रिया में निरपेक्ष रूप से ‘श्रेष्ठ’ और ‘निम्न’ जनों की श्रेणियों ने मूर्त रूप ग्रहण किया । जनों के बीच अपने विस्तार-क्रम में होनेवाले युद्धों में ‘श्रेष्ठ’ जनों द्वारा ‘निम्न’ जनों का संहार, पराजित जनों का दासों में रूपान्तरण, जनों के बारे में रूढ़ छवियों का निर्माण, वर्चस्वशाली जनों द्वारा अपनी मान्यताओं, रीति-रिवाजों, प्रतीकों, नायकों, कर्मकाण्डों का शेष निम्न जनों पर आरोपन, आदि की परिघटनाएं भी सामने आईं । बहरहाल, (कुछेक अपवादों को छोड़कर) हजारों वर्षों में फैले इतिहास में जनों की स्थितियों में भी बदलाव आया, कोई भी जन हमेशा शिखर पर विराजमान नहीं रहा । फलतः जनों के बीच अनेक रूपों में होनेवाले आदान-प्रदान, सहयोग तथा युद्धों और वर्चस्व की कोशिशों के दौरान उनके बीच मान्यताओं, विचारों, उपकरणों, रीति-रिवाजों, कर्मकाण्डों, प्रतीकों, नायकों, आदि का भी पर्याप्त आदान-प्रदान तथा घालमेल घटित हुआ – इतना कि आज (अगर अपवादों को छोड़ दें तो) कोई भी समुदाय अपनी भौतिक-सांस्कृतिक विरासत में ठीक-ठीक यह दावा नहीं कर सकता कि उसमें उसका अपना अंशदान कितना है और कितना अन्यान्य समुदायों/स्रोतों से ग्रहण किया हुआ । मानवजाति का इतिहास एकरेखीय बाइनरी इतिहास नहीं है ।

बहरहाल, हमारे इतिहास में दूसरे बड़े अन्याय का रूप एक समुदाय द्वारा दूसरे समुदाय के साथ भेदभाव, उत्पीड़न, और उसके ऊपर वर्चस्व के रूप में सामने आया । इतिहास के विभिन्न कालखण्डों में हम एक अथवा कुछेक समुदायों द्वारा अन्य समुदायों के ऊपर वर्चस्व, उनके संहार, उनके साथ भेदभाव और उत्पीड़न के विभिन्न रूपों का साक्षात् करते हैं । वर्चस्वशाली ‘श्रेष्ठ’ जनों, जातियों, पंथों-सम्प्रदायों, राष्ट्रों द्वारा ‘निम्न’/पराजित जनों-जातियों-पंथों-सम्प्रदायों-राष्ट्रों का संहार, उत्पीड़न और उनके साथ अनेक रूपों में भेदभावों का सिलसिला आजतक जारी है और एक जाति के रूप में हमारी दावेदारी का मुंह चिढ़ाता रहा है ।

समुदाय-आधारित अन्याय – भेदभाव, उत्पीड़न और संहार – निम्नलिखित रूपों में सामने आता है :

(क) ‘नस्ल’/जन-आधारित उत्पीड़न । इतिहास के विभिन्न काल-खण्डों में और लगभग सभी क्षेत्रों में किसी जन अथवा जनों के समूह द्वारा अपनी नस्लीय श्रेष्ठता का दावा करते हुए अन्य जन अथवा जनों के समूह को रंगभेद समेत विभिन्न रूपों में भेदभाव, उत्पीड़न और संहार का शिकार बनाया जाता रहा है और यह सिलसिला आजतक जारी है ।

(ख) जाति-आधारित भेदभाव और उत्पीड़न । यह भारतीय समाज की खास विशेषता रही है जिसके अन्तर्गत जन्मना श्रेष्ठ-निम्न के सामाजिक सोपान पर आधारित सामाजिक व्यवस्था में खासकर शूद्र तथा अन्त्यज जातियों को – जो व्यापक बहुसंख्यक आबादी का निर्माण करती हैं – सम्मान, समानता, सत्ता, शिक्षा और सम्पत्ति से वंचित कर दिया गया तथा उन्हें दैनन्दिन जीवन में अनेक किस्म के भेदभावों, प्रताड़नाओं और अपमान का शिकार बनाया जाता रहा है ।

(ग) पंथ-सम्प्रदाय-आधारित भेदभाव और उत्पीड़न । खुद को ‘श्रेष्ठ’ पंथ-सम्प्रदाय माननेवालों द्वारा ‘हीन’ अथवा ‘निम्न’ पंथों-सम्प्रदायों का दमन । वर्चस्वशाली पंथों-सम्प्रदायों द्वारा अन्य पंथों-सम्प्रदायों के अनुयायियों के साथ भेदभाव, उनका उत्पीड़न और  उनके संहार की घटनाओं से भी इतिहास के पृष्ठ भरे-पड़े हैं ।

(घ) राष्ट्र-राष्ट्रीयता-आधारित भेदभाव और उत्पीड़न । वर्चस्वशाली औपनिवेशिक अथवा ‘विकसित’ राष्ट्रों द्वारा विजित अथवा कमजोर ‘पिछड़ी’ राष्ट्रीयताओं/उपनिवेशों, राष्ट्रों का दमन, उनकी लूट, उनके साथ विभिन्न रूपों में भेदभाव और उनका संहार ।

(ङ) घुमन्तू/खानाबदोश समुदायों (नट, रोमा, आदि) के साथ भेदभाव और उनका उत्पीड़न ।

(च) भिन्न यौन रुझान वाले समुदायों (लेस्बियन-गे-बाइसेक्सुअल-ट्रांससेक्सुअल-क्विअर, एलजीबीटीक्यू) के साथ भेदभाव और उनका उत्पीड़न ।

(छ) कुछ खास बीमारियों (कुष्ठ, चरक, एड्स, आदि) से ग्रस्त लोगों के साथ भेदभाव, उनका उत्पीड़न । ऐसी बीमारियों से ग्रस्त लोगों का कालक्रम में अपना एक समुदाय भी बन जाता है ।

(ज) युद्ध, औद्योगीकरण, प्राकृतिक आपदाओं के कारण पूरी दुनिया में बिखरे, यहां-वहां भटकते विभिन्न राष्ट्रीयताओं, जातियों, जनजातियों, पंथों-सम्प्रदायों, आदि के करोड़ों विस्थापित/शरणार्थी समूह । ये समूह भी हमारे समाज का आज स्थायी अंग बन चुके हैं और अत्यन्त कठिन स्थितियों में अपमान, जहालत और भुखमरी की जिन्दगी जी रहे हैं । दर-दर भटकते ऐसे सैकड़ों लोगों को हर साल अपनी जान गंवानी पड़ रही है ।

 

इस पूरी प्रक्रिया में जनों/जातियों/पंथों/सम्प्रदायों/राष्ट्रीयताओं/राष्ट्रों के बीच एक दूसरे के प्रति अनेक पूर्वाग्रहों तथा रूढ़ छवियों का भी निर्माण हुआ और ये पूर्वाग्रह तथा रूढ़ियां आजतक मानव समाज में गहरे रूप से समायी हुई हैं ।

बहरहाल, इतिहास में जहां एक ओर समुदाय-आधारित भेदभाव तथा उत्पीड़न आजतक जारी है, वहीं यह भी सच है कि वर्चस्वशाली तथा वर्चस्व की शिकार शक्तियों की स्थितियों में समय-समय पर परिवर्तन भी होता रहता है – एक समय में हाशिये पर पड़े समुदाय दूसरे कालखण्ड में उदीयमान-विजयी शक्तियों के रूप में सामने आते हैं और उत्थान-पतन की इस प्रक्रिया में सामाजिक-सांस्कृतिक जीवन में काफी आदान-प्रदान भी घटित होता है ।

इस उत्थान-पतन के बावजूद, आज भी पूरी दुनिया में ऐसे अनेक जन/जाति/पंथ/सम्प्रदाय/राष्ट्रीयताएं और कुछ समुदाय हैं जो अपेक्षाकृत लम्बे काल से भेदभाव, उत्पीड़न तथा संहार का शिकार होते रहे हैं और कुछ तो लुप्त होने की कगार पर हैं ।

आज सवाल उपर्युक्त भेदभाव/उत्पीड़न के शिकार समुदायों को एकजुट करने तथा उनके सम्मान और समानता के अधिकार को प्रतिष्ठित करने, जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में उनकी भागीदारी सुनिश्चित करने और अधिकार-संपन्न करने की है ।

3. वर्ग-आधारित अन्याय – जीवनयापन के लिए उत्पादन की प्रक्रिया में जनों, समुदायों और व्यक्तियों के बीच आपस में सम्बन्ध भी बनता जाता है । असमान विकास के कारण उत्पादन के साधनों और सामाजिक उत्पादन पर स्वामित्व और उसमें भागीदारी भी असमान रही है । अब तक के इतिहास के बड़े कालखण्ड में सामाजिक सम्पत्ति के उत्पादन में सबसे अधिक योगदान देनेवाले – दास, भूदास, श्रमिक तथा अन्य पेशेवर तबके – उस सम्पत्ति में अपनी न्यायोचित हिस्सेदारी से वंचित किये जाते रहे हैं । दरअसल, इन उत्पादक वर्गों का बेमोल श्रम ही सामाजिक अतिरिक्त सम्पत्ति का स्रोत रहा है ।

अलग-अलग उत्पादन-प्रणालियों में इस वितरणमूलक अन्याय का स्वरूप भिन्न-भिन्न रहा है । पूंजी के युग में इस वितरणमूलक अन्याय ने वैश्विक पैमाने पर एक अत्यन्त भयावह रूप धारण कर लिया है जहां मुट्ठी भर लोगों की सम्पत्ति अनेक देशों और अरबों लोगों की सम्पत्ति के बराबर है ।

वितरणमूलक अन्याय के विस्तार में जाने के बजाय इतना बताना ही पर्याप्त होगा कि आज, इतिहास के किसी भी दौर की तुलना में, सम्पत्ति और पूंजी अपने सर्वाधिक सामाजिक स्वरूप में उपस्थित हुई है । अरबों लोगों की बैंको तथा विभिन्न वित्तीय उत्पादों में जमा बचत राशि, पेन्शन फण्ड, सार्वजनिक उद्यमों तथा वित्तीय उपक्रमों में लगी पूंजी, शेयर समेत अन्य वित्तीय उत्पादों में निवेशित अरबों लोगों की पूंजी, आदि, आदि – पूंजी के इस सामाजिक स्वरूप के बावजूद, इस पूंजी का नियंत्रण और स्वामित्व कुछ मुट्ठी भर कॉरपोरेट घरानों के हाथों में केन्द्रित है जिससे वे अकूत मुनाफा बटोरते हैं । सार्वजनिक धन की लूट, गबन, फर्जीवाड़ा, टैक्स-चोरी जैसे जघन्य अपराधों की तो बात ही अलग है ।

पूंजीवाद वस्तु-पूजा से पूंजी-पूजा के जिस दौर में आ पहुंचा है, उसने विश्वव्यापी पैमाने पर अभूतपूर्व आर्थिक विषमता को जन्म दिया है । इस पूंजी ने वैश्विक संस्थाओँ तथा राष्ट्र-राज्यों की सम्प्रभुता का भी क्षरण किया है और जनतांत्रिक राष्ट्र-राज्यों के नीति-निर्माण को नियंत्रित करने तथा जनतांत्रिक आकांक्षाओं को धता बताने की अपनी ताकत का धृष्टतापूर्ण प्रदर्शन किया है (ताजा उदाहरण यूनान का है) । भारत में भी इसके क्रियाकलाप इधर काफी आक्रामक रूप में सामने आये हैं ।

चूंकि यह वित्तीय पूंजी – पूंजी का कारोबार करनेवाली पूंजी – समस्त समाज के बचत और धन का नियंत्रण करती है और इस नियंत्रण के जरिये अकूत मुनाफा कमाती है, चूंकि इसका कार्यक्षेत्र समूचा विश्व है, और डिजिटल उपकरणों और सेवाओं के विस्तार ने इस पूंजी के क्रियाकलापों को अभूतपूर्व वैश्विक पहुंच तथा गतिशीलता प्रदान की है, फलतः इस पूंजी-पूजा के जाल में फंसा पूरा समाज मुक्ति के लिए छटपटा रहा है – मजदूर, किसान, विभिन्न पेशेवर समुदाय, आदिवासी, अन्य वंचित समुदाय, राष्ट्रीयताएं, आदि । इस बेलगाम पूंजी पर सामाजिक नियंत्रण और स्वामित्व की मांग आर्थिक, वितरणमूलक न्याय के केन्द्र में रही है, हालांकि अलग-अलग समाजों में, सम्बन्धित समाजों की ठोस स्थितियों के अनुरूप, इस नियंत्रण और स्वामित्व की प्रणाली भी भिन्न-भिन्न होगी ।

अन्य अन्यायों की तरह ही, यह वितरणमूलक अन्याय भी समाज में अनेक पतनशील मूल्यों, रूढ़ियों को जन्म देता है । निर्धन, उत्पीड़ित समुदायों (मेहनतकश समुदाय का बड़ा हिस्सा दलित-आदिवासी-अन्य पिछड़ा वर्ग से ही आता है) की कामचोर, निठल्ले, गंदे समुदाय के रूप में रूढ़ छवि बनाने की कोशिश की जाती है, उन्हें प्रायः अनेक प्रताड़नाओं और अपमान का सामना करना पड़ता है, सौन्दर्यीकरण के नाम पर उन्हें ही उजाड़ा जाता है, अपराध हो या महामारी, पुलिस तथा प्रशासनिक अधिकारी सबसे पहले उन्हें इसके लिए जिम्मेवार ठहराते हैं और उनका शिकार करते हैं । बिना किसी अपराध के, न्याय के अभाव में, ऐसे हजारो लोग वर्षों जेल में अपना बहुमूल्य जीवन गुजार देते हैं । वहीं, पूंजी के मुनाफाखोर कारोबारियों का उद्यमिता के आदर्श उदाहरण के रूप में गौरवगान किया जाता है, वे दिन-रात कानून और प्रशासन को ठेंगा दिखाते रहते हैं, सत्ता उनके सामने नतमस्तक रहती है ।

4. प्रकृति और मानवजाति का अन्तर्सम्बन्ध तथा अन्याय – मानवजाति के आगमन के साथ ही ‘प्रकृति’ का भी आगमन हुआ । प्रकृति मनुष्य की रचना है – मानवेतर प्राणियों के लिए प्रकृति कुछ भी नहीं । मानवजाति के आगमन के साथ मनुष्य और प्रकृति का जो द्वैत सामने आया, वह मनुष्य से इतर, मनुष्य की इच्छा से स्वतंत्र, बाह्य जगत के साथ मनुष्य के सम्बन्धों में भी द्वैत रूप में सामने आया । एक ओर वह इस प्रकृति के साथ आवयविक रूप से जुड़ा था, दूसरी ओर अपने जीवनयापन के लिए, अपनी उत्पादक कार्य-सक्रियता के जरिये उसे इसी प्रकृति का ‘विनाश’ भी करना था । मनुष्य और प्रकृति के बीच एक कार्यशील संतुलन का प्रश्न आदिकाल से ही मानव-मन को मथता रहा है । चूंकि प्रकृति मनुष्य की ही रचना है, इसलिए मनुष्य की जीवनयापन की स्थितियों में परिवर्तन के परिणामस्वरूप ‘प्रकृति’ और ‘प्राकृतिक जीवन’ की अवधारणाएं और परिभाषाएं भी बदलती रही हैं ।

प्रकृति से आवयविक रूप से जुड़े होने और प्राकृतिक शक्तियों पर निर्भरता जहां एक ओर प्रकृति-पूजा तथा देवों-देवियों के रूप में प्राकृतिक शक्तियों की उपासना तथा अनेक कर्मकाण्डों के रूप में सामने आई, वहीं प्रकृति को बदलने और प्रकृति से सापेक्ष स्वतंत्रता हासिल करने के प्रयासों ने मानवीय उद्यम और शक्ति के महिमामण्डन की भी नींव रखी । प्रकृति और मनुष्य का, प्राकृतिक शक्ति और मानवीय शक्ति का, प्रकृति और संस्कृति का, नियति और स्वतंत्र इच्छा शक्ति का, प्रकृति पर निर्भरता और मानवीय उद्यम का द्वैत मानव-इतिहास का अभिन्न अंग रहा है ।

औद्योगिक युग में ‘प्रकृति का स्वामी’ बनने के क्रम में मनुष्य-प्रकृति सम्बन्धों में आई विकृतियों ने भयावह रूप ले लिया है । यह सही है कि शिकारी-फलसंग्राहक दौर में शिकारी मानव-जनों के हाथों कुछेक प्राणियों (जैसे मैमथ, आदि) का विनाश घटित हुआ । बड़े पैमाने पर वनों के विनाश की नींव भी कृषि युग में ही रखी गई । वनों के विनाश से मानवेतर प्राणियों की कुछ प्रजातियों तथा सूक्ष्म जीवों का विलोप हुआ अथवा वे विलुप्ति की कगार पर जा पहुंची । बहरहाल, उस विनाश की तुलना औद्योगिक युग के महज दो सौ वर्षों में हुई विनाशलीला से नहीं की जा सकती ।

सवाल औद्योगिक युग की प्रचलित जीवन-दृष्टि का है जिससे औद्योगिक युग अपना औचित्य, अपनी ‘श्रेष्ठता’, ‘प्रकृति का स्वामी’ बनने के अपने अभियान का तर्क ग्रहण करता है । यह जीवन-दृष्टि भी आज लोगों के मन-मस्तिष्क में गहरे रूप से व्याप्त हो चुकी है ।

इस जीवन-दृष्टि के अनुसार, प्रकृति अपने-आप में उपभोग्य नहीं है । सारी प्राकृतिक चीजें गंदी हैं, मनुष्य की जैविक जरूरतों को पूरा करने के लिहाज से अपर्याप्त हैं, बीमारियों का स्रोत हैं – प्रसंस्करण की औद्योगिक प्रक्रिया से गुजर कर ही वह मनुष्य के उपभोग लायक बनती हैं । प्राकृतिक हवा मनुष्य को बीमार करनेवाले अनेक नुकसानदेह कणों तथा जीवाणुओं की वाहक है और सांस लेने लायक नहीं है । एअर-कंडीशनरों की ऑक्सीजेनेटेड स्वस्थ हवा (जो औद्योगीकरण के जरिये उत्पादित हवा है, और इस प्रकार प्राकृतिक हवा का ‘मानवीय हवा’ के रूप में रूपान्तरित एक माल है) गंदी प्राकृतिक हवा के विकल्प के रूप में बेची जाती है । इसी तरह प्राकृतिक जल की जगह जीवाणु-मुक्त तथा खनिजों की संतुलित मात्रा से युक्त बोतलबंद पानी (जो प्रंसस्करण की औद्योगिक प्रक्रिया का उत्पाद है) ले लेती है । यही बात फलों, सब्जियों तथा तमाम प्राकृतिक उत्पादों पर लागू होती है । इसी प्रक्रिया की चरम अभिव्यक्ति हम खुद प्राकृतिक मानव शरीर के संदर्भ में पाते हैं । मानव शरीर भी अपनी त्रुटिपूर्ण प्राकृतिक जेनेटिक संरचना के कारण अनेक बीमारियों और महामारियों का जनक है । अतः मानव शरीर को भी जेनेटिक इंजीनियरिंग के जरिये प्रसंस्कृत कर स्वस्थ मानव शरीर में रूपान्तरित करना है । आजकल फार्मास्युटिकल उद्योगों के शोध-अनुसंधानों तथा नयी-नयी दवाओं और चिकित्सीय उत्पादों के विनिर्माण के केन्द्र में यही जीवन-दृष्टि काम कर रही है । कुल मिलाकर, यह जीवन-दृष्टि ‘प्राकृतिक अस्तित्व’ से ‘मानवीय अस्तित्व’ की ओर महाप्रयाण को औचित्य प्रदान करनेवाली प्रेरक दृष्टि है । प्रकृति-पूजा को विस्थापित कर यह दृष्टि मानव-उद्यम-पूजा का रूप ले लेती है ।

बहरहाल, असल सवाल तो इस पूजा से, चाहे वह ‘प्रकृति’ की हो या ‘मानव-उद्यम’ की, छुटकारा पाने का, और प्राकृतिक प्रक्रियाओं तथा मानवीय उद्यमशीलता के बीच संतुलन कायम करने का है । संतुलन कायम करना मानव-जाति के पूरे इतिहास में एक निरन्तर क्रिया रही है और प्रत्येक युग में अत्यन्त विवादास्पद और प्रतिस्पर्धात्मक भी । फिलहाल हम औद्योगिक युग में इस समस्या से जूझ रहे हैं । प्राकृतिक चीजों के बारे में कही गई बातें पूरी तरह गलत नहीं हैं । प्राकृतिक हवा में नुकसानदेह कण और जीवाणु होते हैं, हवा (अनेक जगहों तथा अवस्थाओं में) जहरीली भी होती है । प्राकृतिक जल के साथ भी यही बात है । मानव शरीर की जेनेटिक संरचना त्रुटिहीन नहीं है । ये सच्चाइयां ही इस जीवन-दृष्टि के प्रचलित होने का एक प्रमुख कारण है । इस सिलसिले में निम्नलिखित बातों पर गौर करना जरूरी है :

(क) सतत् विकासमान प्रकृति और समाज अपने स्वभाव से ही अनेक संभावनाओं से भरपूर अपूर्ण श्रेणियां हैं । इसलिए ‘शुद्ध’, ‘आदर्श’ जैसी अवधारणाएं भ्रामक हैं – चीजों या अपने कार्यों को निरन्तर बेहतर करते जाने के लिहाज से इन अवधारणाओं की सीमित, सापेक्ष उपयोगिता तो है, लेकिन व्यावहारिक रूप से उनकी प्राप्ति संभव नहीं है । अलग-अगल युग में, जीवनयापन की प्रचलित स्थितियों के अनुरूप गढ़ी गईं ऐसी अवधारणाएं अपने-अपने युग की मनोगत परिकल्पनाएं हैं, छवियां हैं, जो सम्बन्धित समाजों को औचित्य प्रदान करती हैं, लेकिन वस्तुगत रूप से जिनका कहीं कोई अस्तित्व नहीं होता । एक खास समाज में प्रचलित ‘शुद्ध’ और ‘आदर्श’ की अवधारणा बदली हुई स्थितियों में जीवनयापन कर रहे समाजों के लिए अपर्याप्त, अवरोधक तथा तिरस्कार-योग्य साबित होती है । ‘शुद्ध’ और ‘आदर्श’ की यह तलाश मानवजाति को अपने ही व्यक्तियों, समुदायों को समानता और पारस्परिक सम्मान के आधार पर सामाजिक-आर्थिक-सांस्कृतिक रूप से अधिकार-संपन्न करने की जगह उसे हमेशा ‘आदर्श’ की प्रतीक्षा में, परिकल्पित ‘आदर्श दुनिया’ के बियाबान में, ‘शुद्धता’ के सम्मोहन में, उन्मादपूर्ण रक्तरंजित अभियानों में भटकाती रहती है । ‘आदर्श’ समाज नहीं, न्यायपूर्ण समाज – ‘आदर्श’ समाज की उपलब्धि संभव नहीं, जबकि न्यायपूर्ण समाज हासिल किया जा सकता है ।

(ख) प्रकृति का विनाश पिछले समाजों में भी हुआ, लेकिन उसकी गति काफी धीमी थी । फलतः उस विनाश की थोड़ी-बहुत भरपाई प्रकृति कर लिया करती थी । लेकिन औद्योगिक युग में प्रकृति के दोहन और उसके विनाश की गति इतनी तेज है कि प्रकृति के लिए भी सांस लेना दूभर हो गया है । औद्योगिक प्रदूषण, पर्यावरण-विनाश, जलवायु-परिवर्तन वैश्विक आपदा का रूप ले चुका है । आज हम जो जहरीली हवा सांस लेते हैं, वह प्राकृतिक हवा नहीं, औद्योगिक युग की प्रदूषित हवा है । नदियों, जलाशयों का जल अब प्राकृतिक जल नहीं, औद्योगिक युग के कचरों, रसायनों, आदि से युक्त विषाक्त जल है । औद्योगिक युग ने पहले प्राकृतिक हवा, जल, आदि को दूषित किया और फिर वह प्रसंस्करण की औद्योगिक प्रक्रिया के जरिये ‘शुद्ध’ हवा और जल के विनिमेय माल के साथ हाजिर है ।

हर देश और हर शहर में हम आज इस विरोधी स्थिति का नजारा देख सकते हैं । एक ओर औद्योगिक प्रसंस्करण की प्रक्रिया से उत्पादित ‘शुद्ध, स्वस्थ हवा, जल’, आदि का उपभोग करनेवाला अल्पसंख्यक समुदाय और दूसरी ओर उसी औद्योगीकरण की प्रक्रिया के कारण प्रदूषण, पर्यावरण-क्षरण के बीच मलिन बस्तियों में कचरों, जहरीली हवा, विषाक्त जल, अम्ल-वर्षा के बीच रहनेवाला बहुसंख्यक समुदाय । प्राकृतिक स्रोतों – वनों, नदियों-झीलों पर निर्भर रहनेवाले आदिवासी समुदायों के लिए जीना दूभर हो गया है । पर्यावरण-क्षरण के कारण विस्थापित, यहां-वहां भटकती आबादी दुनिया भर में लगातार बढ़ती जा रही है । एक ओर सर्वाधिक कार्बन फुटप्रिण्ट वाली, लेकिन सबसे स्वस्थ, शुद्ध हवा और जल का उपभोग करनेवाली अत्यन्त क्षुद्र धनी लोगों की दुनिया है, दूसरी और लगभग नगण्य कार्बन फुटप्रिण्ट वाला विशाल बहुसंख्यक निर्धन, उपेक्षित, वंचित समुदाय है जो कचरों, जहरीली हवा, विषाक्त जल, कीटनाशकों तथा अन्य रसायनों से युक्त खाद्यान्नों, फलों, सब्जियों, आदि के साथ गुजारा करने को मजबूर है ।

प्राकृतिक प्रक्रियाओं और मानवीय उद्यमशीलता के बीच संतुलन कायम करने का प्रश्न आज औद्योगिक प्रदूषण, पर्यावरण-विनाश, जलवायु-परिवर्तन के शिकार बहुसंख्यक निर्धन, आदिवासी और वंचित समुदायों के सम्मानजनक जीवन जीने के न्यायपूर्ण अधिकार का प्रश्न बन चुका है ।

(जारी)

 

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